कौवे और उल्लू का युद्ध – पंचतंत्र की कहानी (The War of the Crow and the Owl)

कौवे और उल्लू का युद्ध – पंचतंत्र की कहानी (The War of the Crow and the Owl)

दोस्तों, पंचतंत्र की कहानियां (Tales of Panchatantra in Hindi) श्रृंखला में आज हम – कौवे और उल्लू का युद्ध की कहानी (The War of the Crow and the Owl Story In Hindi) पेश कर रहे हैं। Kauve Aur Ulloo Ka Yuddh Ki Kahani में बताया गया है की एक स्वामीनिष्ठ सेवक अपने राजा के जित के लिए शत्रु के खेमे में चला जाता है । उसके बाद क्या होता है? यह जानने के लिए पढ़ें – The War of the Crow and the Owl Story In Hindi

The War of the Crow and the Owl – Tales of Panchatantra

कौवे और उल्लू का युद्ध – पंचतंत्र की कहानी (The War of the Crow and the Owl)
Kauve Aur Ulloo Ka Yuddh Ki Kahani

बहुत समय पहले भारत के दक्षिण में महिलारोप्य नाम का एक नगर था। नगर के पास एक विशाल पीपल का पेड़ था। मोटी पत्तियों से ढके उस पेड़ की शाखाओं में विभिन्न पक्षियों के घोंसले बने हुए थे।

कौवे के कई परिवार उन कुछ घोंसलों में रहते थे। कौवों का राजा वायसराज मेघवर्ण भी उसी पेड़ पर रहता था। वहां उस राजा ने अपने दल के लिये सुरक्षा की दृष्टी से एक व्यूह सा बना लिया था।

उल्लू का एक समूह उस पेड़ से कुछ दूरी पर एक पहाड़ी गुफा में रहता था, जिसका राजा अरिमार्दन था। दोनों के बीच एक स्वाभाविक दुश्मनी थी।

अरिमर्दन हर रात पीपल के पेड़ के चारों ओर चक्कर लगाता था और अगर उसे वहां कोई इकला-दुकला कौवा मिल जाता, तो वह उसे मार देता। इसी तरह, उसने एक -एक करके सैकड़ों कौवे को मार डाला था।

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फिर, मेघवर्ण ने अपने मंत्रियों को बुलाकर उनसे उलुकराज के हमलों से बचने का उपाय पूछा। उसने कहा, “कठिनाई यह है कि हम रात में नहीं देख सकते हैं और यह नहीं जानते हैं कि उल्लू दिन के दौरान कहां छिपते हैं। हम उनके ठिकाने के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा है कि इस समय किस उपचार, संधि, युद्ध, यान, आसन, संश्रय, द्वैधीभाव आदि का उपयोग किया जाना चाहिए?”

पहले मेघवर्ण ने “उजीवी” नाम के पहले सचिव से चर्चा की। उसने जवाब दिया, “महाराज! एक बलवान दुश्मन के साथ नहीं लड़ना उचित नहीं है। उसके साथ तो संधि करना बेहतर है। युद्ध में केवल हानि ही हानि है। समान बल वाले दुश्मन से भी पहले संधि करने के, कछुए की तरह सिकुड़ कर और ताकत इकट्ठा करने के बाद ही लड़ना उचित है।”

उसके बाद “संजीवी” नाम के दूसरे सचिव से चर्चा की गई। उसने कहा, “महाराज! किसी को भी शत्रु के साथ संधि नहीं करनी चाहिए। शत्रु संधि के बाद भी नाश ही करता है। पानी आग से गर्म होने के बाद भी आग बुझाता है। विशेष रूप से क्रूर, बेहद लालची और धर्महीन शत्रु के साथ कभी संधि न करें। शत्रु के प्रति शांति दिखाकर, उसकी दुश्मनी की आग और भी अधिक बढ़ जाती है और भी अधिक क्रूर हो जाता है।”

जिस शत्रु के साथ हम आमने-सामने की लड़ाई नहीं कर लड़ सकते हैं, उन्हें छल-बल से पराजित किया जाना चाहिए, लेकिन संधि नहीं करनी चाहिए। सच्चाई तो यह है कि जिस राजा की भूमि दुश्मनों के खून और उनकी विधवाओं के आंसुओं से सिंचित नहीं हुई हो, वह राजा होने के योग्य ही नहीं है।”

तब मेघवर्ण ने तीसरे सचिव “अनुजीवी” से चर्चा की। उसने कहा, “महाराज! हमारा शत्रु दुष्ट है, और अधिक बलशाली भी है। इसलिए उसके साथ संधि और युद्ध दोनों करने में नुकसान हमारा ही है। उसके लिए, शास्त्रों में यान नीति का ही विधान है। हमें यहां से दूर किसी अन्य देश में जाना चाहिए। इस तरह से पीछे हटने में कोई कायरता नहीं है। यहां तक कि शेर भी हमला करने से पहले कुछ कदम पीछे हट जाता है। वीरता का प्रदर्शन करते हुए जो हठपूर्वक युद्ध करता है वह केवल शत्रु की इच्छा पूरी करता है और खुद अपने व अपने वंश का नाश कर लेता है।”

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इसके बाद मेघवर्ण ने चौथे सचिव “प्रजेवी” से चर्चा की। उसने कहा, “महाराज! मेरी राय में, तीनों, संधि, विग्रह और यान तीनों में दोष है। हमारे लिए आसन-नीती का आश्रय लेना बेहतर है। 

सबसे अच्छा तरीका है कि आप अपनी जगह पर मजबूती से जमे रहे। जिस तरह एक मगरमच्छ अपने स्थान पर बैठकर एक शेर को हरा देता है, या एक हाथी को भी पानी में खींच लेता है। अगर हम अपनी जगह छोड़ देते हैं तो हम चूंहों से भी पराजित हो जाएंगे।

हमारे किले में बैठकर हम बड़े से बड़े शत्रु का भी सामना कर सकते हैं। अपने किले में बैठकर, हमारे प्रत्येक सैनिक सैकड़ों दुश्मनों को नष्ट कर सकते हैं। हमें अपने किले को मजबूत बनाना चाहिए। यहां तक कि अपने स्थान पर दृढता से खडे़ छोटे-छोटे वृक्षों को आंधी-तूफान के प्रबल झोंके भी उखाड़ नहीं सकते।”

तब मेघवर्ण ने “चिरंजीवी” नामक पांचवें सचिव से चर्चा की। उसने कहा, “महाराज! इस समय, संयोजन नीति मुझे उचित लगती है। हम किसी बलशाली सहायक मित्र को अपने पक्ष में करके ही शत्रु को मात दे सकते हैं। 

इसलिए, हमें यहां रहना चाहिए और किसी सक्षम मित्र की मदद लेनी चाहिए। यदि एक सक्षम दोस्त नहीं पाया जाता है, तो कई छोटे दोस्तों की मदद भी हमारे पक्ष को मजबूत बना सकती है।

यहां तक कि दो छोटे तिनकों से बुनी गई रस्सी भी इतनी मजबूत हो जाती है कि यह एक हाथी को कसकर बांध सकती है।”

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पांचों मंत्रियों से परामर्श करने के बाद, वायसराय मेघवर्ण अपने वंशानुगत सचिव “स्थिरजीवी” के पास गए, राजा ने उन्हें प्रणाम किया और कहा “श्रीमान! मेरे सभी मंत्री मुझे अलग राय दे रहे हैं। आप उनकी सलाह सुनने के बाद अपना निर्णय जरूर दे।”

स्थिरजीवी ने जवाब दिया “वत्स! सभी मंत्रियों ने अपनी बुद्धि के अनुसार सही निर्देश दिए हैं। सभी नीतियां अपने संबंधित समय में अच्छी होती हैं। लेकिन, मेरी राय में, आपको द्वैधीभाव, या भेदनीति का सहारा लेना चाहिए।

उचित यह है कि पहले हम संधि द्वारा शत्रु के मन में अपने लिये विश्वास पैदा कर लें, किन्तु शत्रु पर कदापि विश्वास न करें। संधि बनाकर युद्ध की तैयारी करते रहें; तैयारी पूरी होने पर युद्ध कर दें। 

संधि अवधि के दौरान, हमें दुश्मन के कमजोर स्थानों को खोजते रहना चाहिए। उनसे परिचित होने के बाद, वहीं हमला करना उचित है।”

मेघवर्ण ने कहा, “आप जो कहते हैं वह निस्संदेह सच है, लेकिन दुश्मन के कमजोर स्थलों का पता कैसे लगाएं?”

स्थिरजीवी ने कहा, “यह केवल गुप्तचरों के माध्यम से ही संभव है कि हम दुश्मन के कमजोर स्थानों की खोज कर सकते हैं। गुप्तचर राजा की आंखों के रूप में कार्य करते हैं और हमें छल से शत्रु पर विजय पानी चाहिये।”

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मेघवर्ण ने कहा, “आप जैसा आदेश करेंगे, वैसा ही मैं करूंगा।”

स्थिरजीवी ने कहा, “अच्छी बात है। मैं स्वयं गुप्तचर का काम करुंगा। तुम मुझ से लड़कर, मुझे लहू-लुहान कर दो और इसी वृक्ष के नीचे फेंककर स्वयं सपरिवार ऋष्यमूक पर्वत पर चले जाओ। मैं तुम्हारे शत्रु उल्लुओं का विश्‍वासपात्र बनकर उन्हें इस वृक्ष पर बने अपने दुर्ग में बसा लूंगा और अवसर पाकर उन सब का नाश कर दूंगा। तब तुम फिर यहां आ जाना।”

मेघवर्ण ने भी ऐसा ही किया। थोड़ी देर में दोनों के बीच लड़ाई शुरू हो गई। जब अन्य कौवे उसकी सहायता के लिए आए, तो उसने उन्हें दूर कर दिया और कहा, “मैं उसे खुद दंडित करूंगा।” अपनी चोंच के प्रहार से स्थिरजीवी को घायल करके उन्हें उसी पेड़ के निचे फैंकने के बाद वह अपने आप परिवारसहित ऋष्यमूक पर्वत पर चला गया।

तब उलु की मित्र कृकालिका ने उलुकराज को मेघवर्ण के भागने और अमात्य स्थिरजीवी के साथ हुई लड़ाई के बारे में सूचित किया। 

उलुकराज ने भी रात के समय अपने दलबल के साथ पीपल के पेड़ पर आक्रमण कर दिया। उसने सोचा की भागते हुए शत्रु को नष्ट करना अधिक सहज होता है। उसने पीपल के पेड़ को घेर लिया और शेष बचे सभी कौवे को मार डाला।

अब उलुकराज की सेना भगोड़े कौवे का पीछा करने के बारे में सोच रही थी कि आहत स्थिरजीवी ने कराहना शुरु कर दिया। उसे सुनकर, सभी का ध्यान उसकी ओर चला गया। सभी उल्लू उसे मारने के लिए दौड़े। तब स्थिरजीवी ने कहा:

“इससे पूर्व कि तुम मुझे जान से मार डालो, मेरी बात सुनो। मैं मेघवर्ण का मंत्री हूं। मेघवर्ण ने मुझे घायल कर दिया था और मुझे इस तरह से फेंक दिया था। मैं आपके राजा को कई बातें कहना चाहता हूं। उससे मेरी भेंट करवादो।”

एक उल्लू ने यह जानकारी उलुकराज को दी। उलुकराज खुद वहां आया था। स्थिरजीवी को देखकर, उसने आश्चर्य के साथ कहा, “तेरी यह दशा किसने कर दी?”

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स्थिरजीवी ने कहा, “देव! बात यह है कि दुष्ट मेघवर्ण अपनी सेना के साथ आप पर हमला करना चाहता था। मैंने उसे रोका और कहा कि वे बहुत बलशाली हैं, उनके साथ लड़ने की बजाए उनके साथ सुलह कर लो। एक बलशाली शत्रु के साथ एक संधि करना ही उचित होता है। मेरी बात सुनने के बाद, उस दुष्ट मेघवर्ण ने सोचा कि मैं आपका हितचिंतक हूं। इसीलिए वह मुझ पर झपट पड़ा।

अब आप मेरे स्वामी हैं। मैं आपकी शरण में आ गया हूं। जब मेरे घाव ठीक हो जायंगे, तो मैं खुद मेघवर्ण को खोजने के लिए आपके साथ जाऊंगा और उसके विनाश में आपका सहायक बनूंगा।”

स्थिरजीवी की बात सुनने के बाद, उलुकराज ने अपने सभी पुराने मंत्रियों से परामर्श किया। उसके पास भी पांच मंत्री थे “रक्ताक्ष, क्रूराक्ष, दीप्ताक्ष, वक्रनास, और प्राकारकर्ण।”

पहले उसने रक्तक्ष से पूछा, “इस शरणागत शत्रु मंत्री के साथ क्या किया जाना चाहिए?”

रक्तक्ष ने कहा कि, “उसे बिना किसी देरी किए मार दिया जाना चाहिए। दुश्मन को केवल तभी मार दिया जाना चाहिए जब वह कमजोर हो, अन्यथा बलि होने के बाद वह दुर्जय हो जाता है। इसके अलावा एक और बात है; एक बार टूट कर जुड़ी हुई प्रीति स्नेह के अतिशय प्रदर्शन से भी बढ़ नहीं सकती।”

रक्तक्ष से सलाह लेने के बाद, उलुकराज ने एक अन्य मंत्री क्रुराक्ष से परामर्श किया कि स्थिरजीवी के साथ क्या किया जाय? क्रुराक्ष ने कहा – “महाराज! मेरी राय में, एक शरणार्थी को मारना एक पाप है।”

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क्रुराक्ष के बाद, अरिमर्दन ने दीप्ताक्ष से चर्चा की। दीप्ताक्ष ने भी यही सलाह दी। 

इसके बाद अरिमर्दन ने वक्रनास से चर्चा की। वक्रनास ने भी कहा “देव! हमें इस शरणागत शत्रु को नहीं मारना चाहिए। कई बार शत्रु भी हित का कार्य कर देते हैं। जब उनके बीच कोई विवाद होता है, तो एक दुश्मन खुद दूसरे दुश्मन को नष्ट कर देता है।”

उनकी बात सुनने के बाद, अरिमर्दन ने फिर से एक अन्य मंत्री प्राकारकर्ण से पूछा “सचिव! आपकी क्या राय है?”

प्राकारकर्ण ने कहा, “देव! यह शरणागत पक्षी अपरिहार्य है। हमें अपने पारस्परिक हितों की रक्षा करनी चाहिए।”

अरिमर्दन ने भी प्राकारकर्ण की बात का समर्थन किया और स्थिरजीवी को नहीं मारने का फैसला किया।

रक्ताक्ष का उलूकराज के इस निश्चय से गहरा मतभेद था। क्योंकि वह केवल स्थिरजीवी की मृत्यु में ही उल्लुओं का हित देखता था।

इसलिए, अपनी सहमति व्यक्त करते हुए, उसने अन्य मंत्रियों से कहा कि आप अपनी मूर्खता से उलूकवंश को नष्ट कर देंगे। लेकिन किसी ने भी रक्ताक्ष के मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया।

उलूकराज के सैनिकों ने स्थिरजीवी कौवे को शैया पर रखकर अपने पर्वतीय दुर्ग की ओर कूच कर दिया।

दुर्ग के पास पहुंचकर स्थिरजीवी ने उलूकराज से निवेदन किया, “महाराज! आप मुझ पर इतने मेहरबान क्यों हो? मैं इसके लायक नहीं हूं।” 

अच्छा तो यह है कि आप मुझे जलती हुई आग में डाल दे।

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उलूकराज ने कहा, “तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?”

स्थिरजीवी ने कहा, “स्वामी! आग में जलकर मेरे पाप धुल जाएंगे। मैं चाहता हूं कि मेरा यौवन अग्नि में भस्म हो जाए और मुझमें उलूकत्व आ जाए, तभी मैं उस पापी मेघवर्ण से बदला ले सकूंगा।”

रक्ताक्ष स्थिरजीवी की इन कपटी चालों को अच्छी तरह समझ रहा था। उसने कहा, “स्थिरजीवी! तुम बड़े चतुर और कुटिल हो। मैं जानता हूं कि उल्लू बनकर भी तुम कौओं के कल्याण के बारे में ही सोचोगे।”

उलूकराज के आदेश के अनुसार सैनिक स्थिरजीवी को अपने दुर्ग में ले गये। किले के द्वार पर पहुंचकर उलूकराज अरिमर्दन ने अपने साथियों से कहा कि स्थिरजीवी को वह स्थान दिया जाए जहां वह रहना चाहता है।

स्थिरजीवी ने सोचा कि उसे किले के द्वार पर ही रहना चाहिये, ताकि उसे किले से बाहर जाने का अवसर मिलता रहे।

ऐसा सोचकर उसने उलूकराज से कहा, “देव! आपने मुझे यह सम्मान देकर बहुत लज्जित किया है। मैं केवल आपका सेवक हूं, और मैं दास के स्थान पर रहना चाहता हूं। किले के द्वार पर मेरा स्थान रखिये। आपके चरणकमलों से पवित्र होने वाली द्वार की धूलि को अपने मस्तक पर रखकर ही मैं अपने आप को सौभाग्यशाली समझूंगा।”

इन मीठे वचनों को सुनकर उलूकराज अपने आप को रोक न सका। उसने अपने साथियों से कहा कि स्थिरजीवी को पर्याप्त भोजन दिया जाए।

प्रतिदिन स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन करते-करते स्थिरजीवी कुछ ही दिनों में पहले जैसा मोटा और बलवान हो गया।

जब रक्ताक्ष ने स्थिरजीवी को हृष्टपुष्ट होते देखा, तो उसने सहयोगी मंत्रियों से कहा, “यहां सभी मूर्ख हैं।” लेकिन मंत्रियों ने अपना मूर्खतापूर्ण व्यवहार नहीं बदला। और पहले की तरह स्थिरजीवी को खाना और मांस खिलाकर उसे मोटा बनाते रहे।

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यह देखकर रक्ताक्ष ने अपने साथियों से कहा कि अब हमें यहां नहीं रहना चाहिए। हम अपना किला किसी और पहाड़ की गुफा में बनाएंगे।

तब रक्ताक्ष ने अपने साथियों से कहा कि ऐसे मूर्ख समुदाय में रहना आपदा को आमंत्रण देना है। उसी दिन रक्ताक्ष अपने परिवार सहित वहां से बहुत दूर एक पर्वत की गुफा में चला गया।

रक्ताक्ष के जाने पर, स्थिरजीवी बहुत प्रसन्न होकर सोचने लगा, “अच्छा हुआ कि रक्ताक्ष चला गया। इन मूर्ख मंत्रियों में वही चतुर और दूरदर्शी था।

रक्ताक्ष के जाने के बाद स्थिरजीवी ने पूरी ताकत से उल्लुओं के विनाश की तैयारी शुरू कर दी। वह छोटी-छोटी लकड़ियों को चुनकर पहाड़ की गुफा के चारों ओर रखने लगा।

जब पर्याप्त लकड़ियां इकट्ठी हो गईं, तो एक दिन उल्लुओं के सूर्य के प्रकाश में अन्धे हो जाने पर वह अपने प्रथम मित्र राजा मेघवर्ण के पास गया और बोला, “मित्र! मैंने शत्रु को जलाकर भस्म करने की पूरी योजना तैयार की है।

तुम भी जलती लकड़ी का एक टुकड़ा अपनी चोंच में लेकर उलूकराज के किले के चारों ओर फैला दो। किला जलकर राख हो जाएगा। शत्रु पक्ष अपने ही घर में जलकर नष्ट हो जायगा।”

यह सुनकर मेघवर्ण बहुत प्रसन्न हुआ। उसने स्थिरजीवी से कहा, “महाराज, आप स्वस्थ रहें, बहुत दिनों के बाद आपके दर्शन हुए हैं।”

स्थिरजीवी ने कहा, “वत्स! यह वक्त बात करने का नहीं है, अगर कोई दुश्मन वहां जाकर मेरे यहां आने की खबर कर दे तो बना-बनाया खेल बिगड़ जाएगा। शत्रु कहीं और भाग जाएगा। जो काम जल्दी हो सकता है, उसमें देर नहीं करनी चाहिए। शत्रुओं का नाश करने के बाद शांति से बैठकर बातें करेंगे।”

मेघवर्ण ने भी इस बात पर हामी भर दी। सब कौवे चोंच में एक-एक जलती हुई लकड़ी लेकर शत्रु के किले की ओर चले और वहां जाकर किले के चारों ओर लकड़ी फैला दी। उल्लुओं के घर जलकर राख हो गए और सारे उल्लू तड़प-तड़प कर मर गए।

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इस प्रकार उल्लुओं के वंश का नाश करके मेघवर्ण वायसराज फिर अपने पुराने पीपल के पेड़ पर आ गया। 

जीत के उपलक्ष्य में सभा बुलाई गई। मेघवर्ण ने स्थिरजीवी को बहुत-सारे पुरस्कार देकर उससे पूछा, “महाराज! शत्रु के किले में इतने दिन कैसे गुजारे? शत्रु के बीच रहना बहुत खतरनाक है। प्राण हर समय गले में अटका रहता है।”

स्थिरजीवी ने उत्तर दिया, “आप सही कह रहे हैं, लेकिन मैं आपका सेवक हूं। सेवक को अपनी तपस्या के अंतिम परिणाम पर इतना विश्वास होता है कि उसे क्षणिक कष्टों की चिंता नहीं रहती। इसके अतिरिक्त मैंने देखा है कि आपके विरोधी उलूकराज के मन्त्री मूर्ख हैं।”

एक रक्ताक्ष ही बुद्धिमान था उसने उन्हें भी छोड़ दिया। मैंने सोचा, यह बदला लेने का उचित समय है। शत्रुओं के बीच विचरण करने वाले गुप्तचर को मान-अपमान की चिंता छोड़ देनी चाहिए। वह केवल अपने राजा के स्वार्थ के बारे में सोचता है। वह मान-मर्यादा की चिंता छोड़कर स्वार्थ साधन की चिन्ता करता रहता है।

मेघवर्ण ने स्थिरजीवी को धन्यवाद दिया और कहा, “मित्र, आप एक महान पुरुषार्थी और दूरदर्शी हैं। किसी काम को शुरू करने और अंत तक उसका पालन करने की आपकी क्षमता अद्वितीय है। दुनिया में कई तरह के लोग होते हैं। नीच प्रवृत्ति के वे हैं जो विघ्नों के भय से कोई कार्य प्रारम्भ नहीं करते, मध्यम वे हैं जो विघ्नों के भय से प्रत्येक कार्य को बीच में ही छोड़ देते हैं, किन्तु श्रेष्ठ वे हैं जो सैकड़ों विघ्नों के होते हुए भी कार्य को आरम्भ करते हैं, बीच में नहीं छोड़ते। आपने मेरे शत्रुओं का समूल नाश करके महान कार्य किया है।”

स्थिरजीवी ने उत्तर दिया “महाराज! मैंने अपने धर्म का पालन किया। भगवान आपका पक्ष लेते हैं। पुरुषार्थ बड़ी चीज है, पर परमात्मा अनुकूल न हो तो पुरुषार्थ भी फल नहीं देता। आपको अपना राज्य मिल गया। लेकिन याद रखें, राज्य अस्थायी होते हैं। बड़े-बड़े विशाल राज्य पल भर में बनते और नष्ट होते हैं। सांझ के रंगीन बादलों की तरह इनका आभामंडल भी क्षणभंगुर होता है। इसलिए राज्य के नाम पर अन्याय न करो, और न्याय से प्रजा का पालन करो। राजा प्रजा का स्वामी नहीं, सेवक होता है।”

इसके बाद मेघवर्ण ने स्थिरजीवी की सहायता से कई वर्षों तक सुखपूर्वक शासन किया।

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