प्राचीन समय में एक नगर में सागर दत्त नाम का एक धनी व्यापारी रहता था। व्यापारी स्वभाव से थोड़ा कंजूस था। एक बार उसके बेटे ने एक अच्छी किताब खरीदी जिसकी कीमत 100 रुपये थी।
उस किताब में केवल एक ही श्लोक लिखा हुआ था – “जो वस्तु जिस मनुष्य को प्राप्त होने वाली होती है, वह उसे अवश्य प्राप्त होती है। उसे विधाता भी नहीं रोक सकता। इसलिए किसी चीज के नष्ट हो जाने पर मैं शोक नहीं करता और न ही अचानक कुछ मिलने पर मुझे आश्चर्य होता है। क्योंकि जो वस्तु मुझे प्राप्त होने वाली है वह कभी दूसरे को नहीं मिल सकती और जो वस्तु दूसरे को प्राप्त होने वाली है वह वस्तु मुझे कभी नहीं मिल सकती।”
उस किताब को देखकर सागर दत्त ने अपने बेटे से पूछा, “तुमने यह किताब कितने में खरीदी?”
बेटे ने जवाब दिया 100 रुपए में।
बेटे से किताब की कीमत जानकर सागर दत्त अपने बेटे से नाराज हो गए।
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उसने अपने बेटे से कहा, “अगर तुम एक श्लोक खरीदने के लिए 100 रुपये दोगे, तो तुम अपनी बुद्धि से पैसे कैसे कमाओगे? मैं तुम जैसे मूर्ख को अपने घर में नहीं रखूंगा।”
अपमानित होकर सागर दत्त के बेटे ने घर छोड़ दिया। घूमते-घूमते वह दूसरे नगर में पहुंच गया। जब लोग उससे उसका नाम पूछते तो वह अपना नाम प्राप्तव्य-अर्थ बताता। कुछ समय के बाद वह इसी नाम से पहचाने जाने लगा।
उस शहर में एक उत्सव का आयोजन किया गया था। उस नगर की राजकुमारी चन्द्रावती भी अपनी सखियों के साथ इस आयोजन को देखने आयी थी। उत्सव देखने के दौरान राजकुमारी की नजर एक राजकुमार पर पड़ी जो राज्य के बाहर से इस उत्सव को देखने आया था।
राजकुमार को देखते ही राजकुमारी पहली नजर में उस पर मोहित हो गई। राजकुमारी ने अपनी सहेली से कहा, “तुम किसी भी तरह मेरा मिलन उस राजकुमार से करवा दो।”
राजकुमारी की सहेली तुरंत राजकुमार के पास पहुंची और बोली, “राजकुमार, मुझे राजकुमारी चंद्रावती ने आपके पास भेजा है। जब से उसने आपको देखा है, उसकी दशा दयनीय हो गई है। यदि आप उसे तुरंत नहीं मिलते हैं, तो उसके पास मृत्यु के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा।”
राजकुमार ने कहा, “यदि ऐसा है, तो मुझे बताओ कि मैं राजकुमारी के पास कैसे और कब आऊ।”
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राजकुमारी की सहेली ने कहा, “आज आधी रात को राजकुमारी के शयनकक्ष की खिड़की में एक मजबूत चमड़े की रस्सी लटकी होगी, उस रस्सी के सहारे आप कक्ष में प्रवेश कर लेना।”
राजकुमार रात होने की प्रतीक्षा करने लगा। आधी रात को राजकुमार ने कुछ सोचा और अचानक राजकुमारी के कक्ष में जाना स्थगित कर दिया।
संयोग से उसी समय व्यापारी का पुत्र प्राप्तव्य-अर्थ वहां से गुजर रहा था। जब उसने कक्ष के बाहर एक रस्सी लटकी देखी तो वह उस रस्सी के सहारे कक्ष में पहुंच गया।
राजकुमारी ने व्यापारी के पुत्र को राजकुमार समझकर उसका स्वागत-सत्कार किया। उसे स्वादिष्ट खानपान करवाया गया। भोजन के बाद, उसने उसे अपने बिस्तर पर लिटा दिया और खुद भी लेट गई।
व्यापारी के बेटे के स्पर्श से रोमांचित होकर राजकुमारी ने उससे कहा, “आपके दर्शन मात्र से मंत्रमुग्ध होकर, मैं अपना हृदय आपको दे बैठी हूं। अब मैं आपके अतिरिक्त किसी को भी पति के रूप में स्वीकार नहीं करूंगी।”
राजकुमारी की बात सुनकर व्यापारी का बेटा शांत पड़ा रहा। इस पर राजकुमारी ने कहा “आप शांत-शांत क्यों हो? क्या हुआ? आप मुझसे बात क्यों नहीं कर रहे हो।”
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इस सवाल पर व्यापारी के बेटे ने चुप्पी तोड़ी और कहा, “मनुष्य को वही प्राप्त होता है जो उसे प्राप्त होना होता है।” यह सुनकर राजकुमारी को कुछ संदेह हुआ तो राजकुमारी ने व्यापारी के बेटे को अपने कक्ष से बाहर कर दिया।
व्यापारी का पुत्र वहां से भटकता हुआ एक सुनसान मंदिर में जा पहुंचा, जहां नगर रक्षक अपनी प्रेमिका से मिलने वाला था। नगर के पहरेदार ने जब व्यापारी के बेटे को देखा तो वह बोला, “यह जगह सुनसान जगह है। तुम मेरे स्थान पर जाकर सो जाओ।”
व्यापारी के बेटे ने यह बात स्वीकार कर ली। लेकिन वह खुद अर्धनिंद्रा में होने के कारण उस स्थान पर जाने के बजाय, किसी अन्य स्थान पर पहुंच गया जहां नगर रक्षक की पुत्री विनायवती की मुलाकात एक ऐसे व्यक्ति से होने वाली थी जिससे वह प्रेम करती थी।
विनयवती उस स्थान पर सो रही थी। जब विनयवती ने व्यापारी के पुत्र को आते देखा तो वह समझ बैठी कि वह उसका प्रेमी है। प्रसन्न होकर वह व्यापारी के पुत्र का आदर-सत्कार करने लगी और उसे अपने बिस्तर पर लेकर सो गई।
व्यापारी के पुत्र के कुछ देर चुप रहने पर विनयवती ने पूछा, “क्या बात है, आप अब भी मुझसे निश्चिंत होकर बात क्यों नहीं कर रहे हो?”
व्यापारी के बेटे ने फिर वही उत्तर दिया जो उसने राजकुमारी को दिया था। व्यापारी के बेटे ने कहा, “मनुष्य को वही प्राप्त होता है जो उसे प्राप्त होना होता है।” विनयवती समझ गई कि उसे बिना सोचे-समझे कार्य करने का फल मिल रहा है। उसने व्यापारी के बेटे को तुरंत घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
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एक बार फिर व्यापारी का बेटा सड़क पर आ गया। कुछ देर सड़क पर चलने के बाद उसे एक बारात नजर आई। व्यापारी का बेटा उस बारात में शामिल हो लिया।
वह बारात जिस दूल्हे की थी उसका का नाम वरकीर्ति था। वह अपनी बारात को बड़े धूमधाम से ले जा रहा था। जब बारात अपने गंतव्य स्थान पर पहुंची तो वहां उनका खूब आदर सत्कार किया गया।
विवाह के शुभ मुहूर्त में सेठ की पुत्री सज-धज कर मंडप में आई। तभी अचानक एक मदमस्त हाथी अपने महावत को मारकर मंडप की ओर दौड़ता हुआ आया। उसे देख सभी बाराती दूल्हे को लेकर वहां से भाग खड़े हुए।
सेठ के परिवार के सभी सदस्य और रिश्तेदार भी अपने-अपने घर में जाकर छिप गए। वहां मण्डप में केवल व्यापारी का बेटा और दुल्हन बने सेठ की बेटी ही बचे थे।
व्यापारी के बेटे ने दुल्हन से कहा, “चिंता मत करो, मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा।” व्यापारी के बेटे ने एक हाथ से दुल्हन को पकड़ रखा था और दूसरे हाथ में लाठी लेकर हाथी पर टूट पड़ा। व्यापारी के बेटे के ताबड़तोड़ हमले से हाथी अचानक भाग खड़ा हुआ।
जब सभी बाराती बारात लेकर वापस आए तो उन्होंने देखा कि दुल्हन व्यापारी के बेटे का हाथ थामे हुए उसके पीछे खड़ी है।
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जब तक बारात वापस लौटी तब तक शुभ मुहूर्त भी निकल चुका था। इस प्रकार वधू को किसी अन्य युवक के साथ देखकर वरकीर्ति क्रोधित हो उठा।
क्रोधित होकर वरकीर्ति ने अपने ससुर से ऊंचे स्वर में कहा, “आपने यह ठीक नहीं किया। आपने अपनी बेटी का हाथ मेरे हाथ में देने के बजाय किसी और युवक के हाथ में दे दिया है।”
उसकी बात सुनकर सेठ क्षमायाचना करते हुए बोला, “मैं भी हाथी के डर से तुम सब लोगों की तरह भाग गया था, अभी अभी लौटा हूं। मुझे भी यह नहीं पता कि यह घटना कैसे हुई।”
सेठ की बेटी ने कहा, “पिताजी, इन्होंने मुझे मौत के मुंह से बचाया है। इसलिए मैं इनके अलावा किसी ओर से शादी नहीं करूंगी।”
इस तरह विवाद बढ़ता ही चला गया। इसी विवाद में रात भी खत्म हो गई। प्रात:काल ही राजकुमारी भी वहां पहुंच गई। जब विनयवती ने यह सब सुना तो वह भी भीड़ को देखने के लिए यहां पहुंच गई। नगर का राजा भी वहां पहुंच गया।
राजा ने व्यापारी के पुत्र से कहा, “तुम निर्भय होकर सारी बात मुझे बताओ।”
व्यापारी के बेटे ने उत्तर दिया, “मनुष्य को वही प्राप्त होता है जो उसे प्राप्त होना होता है।”
यह सुनकर राजकुमारी ने कहा, “इसे विधाता भी नहीं बदल सकता।”
तब विनयवती भीड़ से आगे आई और बोली “इसीलिए मुझे बीती बातों का पछतावा नहीं है।”
यह सब सुनकर सेठ की बेटी ने कहा, “जो वस्तु मेरी है, वह किसी और की नहीं हो सकती।”
यह सब राजा के लिए एक पहेली बन गया था। तब राजा ने सब कन्याओं से अलग-अलग सारी बात सुनी। सबकी अलग-अलग की बातें सुनकर राजा अस्वस्थ हो गया। उन्होंने सभी को अभय दान दिया।
राजा ने अपनी पुत्री को सभी प्रकार के आभूषण भेंट किए और धन सहित हजार गांव सौंपकर व्यापारी के पुत्र को अपना पुत्र स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार व्यापारी का पुत्र युवराज के पद पर प्रतिष्ठित हुआ। इसी प्रकार नगर रक्षक ने भी अपनी पुत्री को व्यापारी के पुत्र को सौंप दिया। व्यापारी के बेटे ने भी उन तीनों लड़कियों से शादी कर ली और महल में आराम से रहने लगा। कुछ समय बाद उसने अपने परिवार को भी महल में बुला लिया।
कहानी का भाव:
दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम।
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