भारत के समाज सुधारक – Social reformers of India

भारत के समाज सुधारक - Social reformers of India

Bharat ke samaj sudharak in Hindi – कोई भी सभ्यता या समाज प्रथा-परंपरा और विभिन्न प्रकार के लोगों से बना होता है जो विभिन्न जाति, धर्म, रंग, लिंग के हो सकते हैं और विभिन्न मान्यताओं में विश्वास करने वाले हो सकते हैं.

समाज के सभी घटकों से समाज के साथ सामंजस्य स्थापित करने और बिना किसी भेदभाव के रहने की अपेक्षा की जाती है. किसी भी समाज की आदर्श स्थिति तभी मानी जाती है जब समाज के सभी वर्गों में समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा हो.

हालांकि, दुनिया भर में मानव समाज यह दर्शाता है कि हर जगह कई प्रकार के शोषणकारी कृत्य प्रचलित हैं. समाज में यह शोषक सोच मानव वर्चस्व, सत्ता और प्रभुत्व के लालच से पैदा हुई है. जैसे समकालीन युग में तथाकथित निम्न वर्ग के लोगों का तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों द्वारा शोषण किया जाता था; गोरे लोगों द्वारा अश्वेतों का शोषण किया जाता था; पुरुष प्रधान विचारों द्वारा महिलाओं का शोषण किया गया; एक धर्म को मानने वाला दूसरे धर्म को कमजोर या गलत बताता है और अपने धर्म को श्रेष्ठ आदि बताता है.

यह भेदभावपूर्ण और शोषक कृत्य लंबे समय तक सामाजिक बुराई का रूप धारण कर लेता है और किसी भी सभ्य समाज के चेहरे पर कलंक की तरह छाप बन जाता है.

लेकिन अगर हम दुनिया के किसी भी देश के इतिहास पर नजर डालें तो समय-समय पर कई ऐसी प्रभावशाली शख्सियतें सामने आई हैं जिन्होंने समाज के दबे-कुचले लोगों की प्रगति के लिए अभूतपूर्व योगदान और काम किया है.

इन महान विचारों वाले लोगों को उनके काम और अमूलग्रह परिवर्तन के कारण समाज सुधारक (Social reformer) कहा गया है. भारत में समाज सुधारकों के इन सार्थक प्रयासों से जातिवाद (Casteism), सती प्रथा (Tradition of Sati) जैसी उच्च स्तर पर फैली सामाजिक बुराइयों को समाप्त करना संभव हुआ है.

आज इस लेख में हम भारत के कुछ महान समाज सुधारकों और उनके महान कार्यों (Social reformers of India and their great works) के बारे में जानेंगे. इसके साथ ही हम यह भी जानने की कोशिश करेंगे कि सामाजिक बुराइयां क्या हैं और इसके कारक क्या रहे हैं.

Table of Contents

समाज सुधारक किसे कहा जाता है? Who is called a social reformer?

वास्तव में, एक समाज सुधारक (Social reformer) एक साधारण इंसान होता है जो अपने कर्तुत्व और असाधारण तरीके से मानवता की सेवा करना चाहता है.

समाज सुधारक व्यक्ति हमेशा मानवता और सद्भावना के प्रति जागरूक रहता है और किसी भी कमजोर वर्ग के लोगों का दर्द सहन नहीं कर सकता और उसमें बदलाव लाने का प्रयास करता रहता है.

समाज सुधारक अपनी सेवा को अपना कर्तव्य समझता है और अपने पीछे एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था छोड़ना चाहता है जो पहले से बेहतर हो.

भारतीय समाज सुधारक – Indian social reformer in Hindi

भारत एक भाग्यशाली देश है कि इसके इतिहास में कई असाधारण और प्रबल विचारों वाले लोग हुए हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन समाज की भलाई और दबे-कुचलें वर्गों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया.

इनमें से कुछ राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, डॉ. भीम राव अंबेडकर, ज्योतिबा फुले, एनी बेसेंट, मदर टेरेसा, विनोबा भावे आदि हैं जिन्होंने अपने सामाजिक कार्यों के माध्यम से क्रांतिकारी बदलाव (Revolutionary change) लाए हैं.

इस लेख के माध्यम से हम इन असाधारण पुरुष और महिला समाज सुधारकों के जीवन और कार्यों को जानेंगे और आधुनिक भारत (Bodern india) के निर्माण के उनके प्रयासों की सराहना करेंगे.

राजा राम मोहन राय (Raja Ram Mohan Roy):

Social reformers of India
Raja Ram Mohan Roy

19वीं शताब्दी की शुरुआत में, भारतीय समाज कई सारी सामाजिक बुराइयों से घिरा हुआ था जैसे सती प्रथा, जाति व्यवस्था, धार्मिक अंधविश्वास-कर्मकांड आदि. राजा राम मोहन राय उस समय पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने इस तरह की अमानवीय प्रथाओं को पहचाना उनकी निंदा की और उनके खिलाफ लड़ने का प्रण किया.

राजा राम मोहन राय को उनके योगदान के लिए भारतीय पुनर्जागरण का शिल्पकार (Architect Of Indian Renaissance) और आधुनिक भारत का जनक (Father Of Modern Indian Renaissance) माना जाता है.

राम मोहन राय का जन्म 22 मई 1772 को बंगाल के हुगली जिले के राधानगर में हुआ था और वे एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार से थे. उनके पिता का नाम रमाकांत रॉय (Ramakant Roy) और माता का नाम त्रिवेणी रॉय (Triveni Roy) था. उनके पिता उस समय बंगाल के नवाब के दरबार में अच्छे पद पर विराजमान थे.

उन्होंने पटना और वाराणसी में अपनी शिक्षा पूरी की. 1803 से 1814 तक उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी में भी काम किया. राजा राम मोहन राय की शादी बहुत कम उम्र में हो गई थी और 10 साल की उम्र तक उन्होंने तीन बार शादी की थी.

राजा राम मोहन राय की मृत्यु 27 सितंबर 1833 को ब्रिस्टल, इंग्लैंड में हुई थी.

राजा राम मोहन राय के मौलिक कार्य और सामाजिक सुधार:

राजा राम मोहन राय बहुत खुले विचारों वाले होने के साथ-साथ किसी भी विषय पर मंथन करने वाले भी थे. वे पश्चिमी प्रगतिशील सोच से बहुत अधिक प्रभावित थे और वे कई धर्मों के अध्ययन में भी काफी माहिर थे.

वह इस्लाम के एकेश्वरवाद, सूफी दर्शन के तत्वों, ईसाई धर्म की आचारनीति और नैतिकता और उपनिषदों के वेदांत दर्शन से प्रभावित थे.

उनका मुख्य उद्देश्य हिंदू समाज में व्याप्त बुराइयों को मिटाना था. उन्होंने हिंदुओं की मूर्ति पूजा की आलोचना की और वेदों के माध्यम से अपनी बात साबित करने की कोशिश की.

लेकिन जिस विशेष योगदान के लिए राजा राम मोहन राय को याद किया जाता है, वह सती प्रथा को खत्म करने का उनका महान प्रयास था.

जब उनके बड़े भाई की मृत्यु पर उनकी भाभी सती हो गईं, तो इस घटना का उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा, तब राजा राम मोहन राय ने इसके खिलाफ लड़ने का फैसला किया.

उन्होंने इस क्रूर प्रथा को समाप्त करने के लिए एक आंदोलन शुरू किया और ब्रिटिश सरकार को इसके खिलाफ कानून बनाने के लिए राजी भी किया.

राजा राम मोहन राय के प्रयासों से तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने 1829 में बंगाल सती प्रथा विनियमन अधिनियम (Bengal Sati Regulation) पारित किया.

20 अगस्त 1828 को, राजा राम मोहन राय ने ब्रह्म समाज (Bramh Samaj) की स्थापना की, जो बाद में ब्रह्मों समाज (Brahmo Samaj) बन गया. इस संस्था का कार्य एक ऐसा आंदोलन चलाना था जो एकेश्वरवाद को बढ़ावा दे तथा मूर्ति पूजा की आलोचना करे और समाज को ब्राह्मणवादी सोच और महिलाओं को उनकी दयनीय स्थिति आदि से बाहर निकाले.

1820 में, उन्होंने “The Precepts of Jesus, the Guide to Peace and Happiness” पुस्तक प्रकाशित की जिसमें राम मोहन ने ईसाइयों की सादगी और नैतिकता का वर्णन किया है.

अपने विचारों और कल्पना को आम लोगों के बीच फैलाने के लिए, उन्होंने वर्ष 1821 में प्रज्ञा चंद (Pragya Chand) और संवाद कौमुदी (Samvad Kaumudi) नामक दो समाचार पत्रिकाएं शुरू कीं.

राजा राम मोहन राय ने मिरत-उल-अखबर (Mirat-ul-Akhbar) नामक एक फारसी समाचार पत्रिका भी शुरू की थी.

इन सबके अलावा उन्होंने कलकत्ता में वेदांता और हिंदू कॉलेज की स्थापना की.

समाज के लिए राजा राम मोहन राय का योगदान

आधुनिक भारत का विचार सबसे पहले राजा राम मोहन राय के कार्यों और प्रयासों से दिया गया था, जो लंबे समय से ब्रिटिश शोषण और सामाजिक बुराई के दोहरे बोझ तले दबा हुआ था.

यह कहना अनुचित नहीं है कि शायद भारत के स्वतंत्रता संग्राम की नई शुरुआत राजा राम मोहन के आधुनिक विचारों के प्रसार के साथ हुई थी.

इस वजह से आधुनिक भारत के निर्माण में उनका योगदान आधारशिला के समान है.

स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda):

Social reformers of India
Swami Vivekananda

विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता, भारत में विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी के घर हुआ था. उनके बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त (Narendranath Dutt) था.

नरेंद्र बचपन से ही बहुत होनहार छात्र थे; उनकी चेतना और पढ़ने की क्षमता असाधारण थी; नरेंद्र एक चौकस पाठक थे.

वे एक बुद्धिवान छात्र थे, जिनकी रुचि दर्शनशास्त्र, जीव विज्ञान, कला, संस्कृति, संगीत और सामाजिक विज्ञान आदि सभी प्रकार के विषयों में थी. विवेकानंद की विशेष रूप से दर्शनशास्त्र और धार्मिक विषयों में रुचि थी.

विवेकानंद पश्चिमी विचारकों और दार्शनिकों जैसे कांट, हेगेल, जॉन स्टुअर्ट मिल, अगस्टे कॉम्टे, बारूक स्पिनोजा, हर्बर्ट स्पेंसर, चार्ल्स डार्विन आदि को बड़ी रुचि के साथ पढ़ते थे.

वह हिंदू धर्म के सभी धार्मिक और दार्शनिक विषयों में भी कुशल थे, चाहे वह उपनिषद, वेद, रामायण, महाभारत या गीताशास्त्र हो.

इन सभी अध्ययनों ने उन्हें एक जिज्ञासु व्यक्ति बना दिया. सत्य और ज्ञान को जानने की उनकी इच्छा उन्हें स्वामी रामकृष्ण परमहंस (Swami Ramakrishna Paramhansa) के पास ले गई और नरेंद्रनाथ स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) में परिवर्तित हो गए.

स्वामी विवेकानंद के मौलिक कार्य और सामाजिक सुधार:

यद्यपि विवेकानंद ने किसी विशिष्ट सामाजिक सुधार की पहल नहीं की, लेकिन उनके भाषणों और लेखन ने सभी प्रकार की सामाजिक और धार्मिक बुराइयों के खिलाफ संदेश दिया है.

विवेकानंद का मुख्य लक्ष्य भारत के युवाओं की शारीरिक और मानसिक कमजोरी को दूर करना था. उन्होंने युवाओं को शक्ति प्राप्त करने के लिए शारीरिक व्यायाम या ज्ञान प्राप्ति का संदेश दिया.

विवेकानंद का मानना था की मजबूती ही जीवन है और कमजोरी का अर्थ मृत्यु है. उनका यह भी मानना था कि भारत की सभी समस्याओं के लिए, चाहे वह सामाजिक हो या राजनीतिक, उनका समाधान भारत की संस्कृति और दर्शन में निहित है.

विवेकानंद धार्मिक रीति-रिवाजों और अंधविश्वासों के खिलाफ थे; वह अपने भाषणों और व्याख्यानों में सामाजिक बुराईयों के खिलाफ जोरदार बहस करते थे.

उन्हें पूरा विश्वास था कि महिलाएं भारत का भाग्य बदल सकती हैं और इतना ही नहीं उन्होंने यह भी दावा किया कि 50 महिलाओं की मदद से वह भारत को एक आधुनिक राष्ट्र में बदल सकते हैं.

हांलाकि, भारत में उनका वास्तविक योगदान हिंदू धर्म के सही अर्थ को पुनर्जीवित करना था.

1893 में, स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन (World Conference of Religions) में भारत की वास्तविक संस्कृति और दर्शन को दुनिया के सामने प्रचारित किया था. उनके ऐतिहासिक व्याख्यान और भाषण ने दुनिया को यह साबित कर दिया कि हिंदू धर्म किसी से कम नहीं है.

उन्होंने अथक प्रयासों से देश के युवाओं के मन में गर्व और महत्व को समझाया ताकि वे पूरे आत्मविश्वास के साथ दुनिया का सामना कर सकें.

वह किसी भी धार्मिक तर्क और रूढ़ियों द्वारा कायम किसी भी तरह की सामाजिक बुराइयों के खिलाफ मजबूती से खड़े होते थे और उनका मानना था कि अगर राष्ट्र को प्रगति करनी है तो अस्पृश्यता को समाप्त करना ही होगा.

इसके अलावा, उनके जोशपूर्ण भाषणों और व्याख्यानों ने स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन को गति दी और उनका जीवन और शिक्षाएं अभी भी देश के युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं.

स्वामी विवेकानंद की मृत्यु 4 जुलाई 1902 को भारत के बंगाल में बेलूर मठ में ध्यान करते हुए हुई थी.

स्वामी दयानंद सरस्वती (Swami Dayanand Saraswati):

Social reformers of India
Swami Dayanand Saraswati

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 जनवरी 1824 को गुजरात के मोरबी में हुआ था, उनके बचपन का नाम मूलशंकर (Moolshankar) था. 21 साल की उम्र में, उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और दंडी स्वामी पूर्णानंद के साथ भ्रमण पर चले गए, जिन्होंने उन्हें दीक्षा दी और उनका नाम मूलशंकर से स्वामी दयानंद सरस्वती रखा.

स्वामी दयानंद सरस्वती के मौलिक कार्य और सामाजिक सुधार:

स्वामी दयानंद सरस्वती वेदों की शिक्षा में एक महान विश्वासी थे और उन्होंने एक नारा भी दिया था “वेदों की ओर लौटो (Go back to the Vedas)”. उन्होंने सभी लोगों और धर्म को समान अधिकार और सम्मान दिया.

उन्होंने मूर्ति पूजा और हिंदू धर्म में फैले अन्य अंधविश्वासों के खिलाफ अपने कड़े विचार व्यक्त किए. वह हिंदू धर्म के नाम पर किए गए सभी गलत कामों के खिलाफ बहस करते थे और हिंदू दर्शन को फिर से प्रचारित करने का प्रयास करते थे.

उन्होंने जाति व्यवस्था आदि जैसी सभी सामाजिक बुराइयों का बहुत आक्रामक रूप से विरोध किया. लेकिन उनका मानना था कि यह व्यवस्था पेशे और काम के आधार पर होना चाहिए.

वह महिलाओं के शिक्षा के अधिकार और समान सामाजिक स्थिति के समर्थक और हितचिंतक थे, साथ ही उन्होंने छुआछूत और बाल विवाह आदि के खिलाफ भी अभियान चलाया था.

वह अंतर्जातीय विवाह और विधवा विवाह के साथ-साथ शूद्रों और महिलाओं की वेद पढ़ने और उच्च शिक्षा की स्वतंत्रता के समर्थक थे.

अपने विचारों को आगे बढ़ाने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्य समाज (Arya Samaj) की स्थापना की. उनका मुख्य लक्ष्य हिंदू धर्म का प्रचार और सुधार करना और सच्चे वैदिक धर्मों को पुनः बहाल करना था.

उनका प्रयास भारत को सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक रूप से समान बनाना और भारतीय सभ्यताओं और संस्कृति पर पश्चिमी प्रभाव को रोकना था.

हालांकि, आर्य समाज के तमाम अच्छे कामों के बावजूद वह अपने शुद्धि आंदोलन (Shuddhi movement) को लेकर विवादित भी हो गए थे, जिसके तहत जो व्यक्ति दूसरे धर्मों में चला गया है, वह फिर से हिंदू धर्म में लौट सकता है.

लेकिन इन सबके बावजूद, उन्होंने भारत की सामाजिक बुराइयों, खासकर हिंदू धर्म के भीतर की बुराई को दूर करने में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है.

ब्रिटिश समाजसेविका एनी बेसेंट (Annie Besant) ने एक बार कहा था कि स्वामीजी ही एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने घोषणा की थी कि “भारत भारतीयों के लिए है”.

ईश्वर चंद्र विद्यासागर (Ishwar Chandra Vidyasagar):

Social reformers of India
Ishwar Chandra Vidyasagar

ईश्वर चंद्र विद्यासागर का जन्म 26 सितंबर 1820 को पश्चिम मिदनापुर, बंगाल में ठाकुरदास बंद्योपाध्याय और भगवती देवी के घर हुआ था. वह 19वीं सदी के असाधारण समाज सुधारकों में से एक थे.

ईश्वर चंद्र विद्यासागर की पारिवारिक स्थिति बहुत नाजुक थी, उनका बचपन बिना बुनियादी सुविधाओं के अत्यधिक गरीबी में बीता.

लेकिन विद्यासागर एक होनहार छात्र थे और अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए वे हमेशा सड़कों पर लगे दीयों की रोशनी में पढ़ते थे क्योंकि उनके घर में रोशनी नहीं थी.

स्कूलों और कॉलेजों में उनके असाधारण प्रदर्शन के कारण, उन्हें कई छात्रवृत्तियां मिलीं और साथ ही वे खुद और अपने परिवार की मदद के लिए अंशकालिक अध्यापन भी किया करते थे.

विद्यासागर ने कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज से साहित्य, संस्कृत व्याकरण, कानून और खगोल विज्ञान का अध्ययन किया.

विद्यासागर एक बहुत ही साहसी समाज सुधारक थे जो किसी भी सामाजिक बुराई के खिलाफ लड़ने से नहीं डरते थे.

ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मौलिक कार्य और सामाजिक सुधार:

उनका मुख्य योगदान महिलाओं की सामाजिक स्थिति को ऊपर उठाने में था, वे विधवा विवाह के बहुत बड़े समर्थक थे, उन दिनों हिंदुओं में विधवाओं की स्थिति बहुत दयनीय थी, विद्यासागर ने महिलाओं के सम्मान के लिए जीवनभर काम किया.

इसके लिए उन्होंने विधवा पुनर्विवाह के लिए एक कानून बनाने की पहल की, जिसके कारण विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 (Widow Remarriage Act 1856) पारित किया गया, जिसने विधवाओं को पुनर्विवाह करने की स्वतंत्रता के साथ-साथ उनसे पैदा होने वाले बच्चे को भी उचित ठहराया.

उन्होंने बहुविवाह और बाल विवाह की प्रथा के खिलाफ भी आवाज उठाई और कहा कि हिंदू शास्त्रों में इसका कहीं उल्लेख नहीं है.

विद्यासागर का शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान रहा है; उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “बर्नो पौरीचाई (अक्षरों का परिचय)” को सरल बनाकर बंगाली भाषा को शुद्ध किया और आम आदमी के लिए सुलभ बनाया. बांग्ला भाषा में यह पुस्तक आज भी एक उत्कृष्ट पुस्तक मानी जाती है.

विद्यासागर अपनी दयालुता के लिए भी प्रसिद्ध थे, वे सड़कों के किनारे रहने वाले गरीब लोगों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते थे.

विद्यासागर जी ने ब्रह्म समाज की गतिविधियों के साथ-साथ राजा राम मोहन राय द्वारा शुरू किए गए सामाजिक सुधारों को बनाए रखा.

29 जुलाई 1891 को ईश्वर चंद्र विद्यासागर का 70 वर्ष की आयु में कलकत्ता (अब कोलकाता) में निधन हो गया.

ज्योतिबा फुले (Jyotiba Phule):

Social reformers of India
Jyotiba Phule

ज्योतिराव फुले, जिन्हें महात्मा ज्योतिबा फुले के नाम से भी जाना जाता है, का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सातारा में एक सब्जी विक्रेता परिवार में हुआ था.

पारिवारिक गरीबी के कारण, वह अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सके, लेकिन बाद में उन्होंने कुछ ऐसे लोगों की मदद से अपनी शिक्षा पूरी की, जिन्होंने ज्योतिराव के भीतर की क्षमता को पहचाना था.

12 साल की उम्र में ज्योतिबा की शादी सावित्रीबाई फुले से हो गई थी. उनके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन तब आया जब उनके एक ब्राह्मण मित्र ने उनका अपमान किया, तब ज्योतिबा फुले ने समाज में व्याप्त जाति विभाजन और भेदभाव को गंभीरता से महसूस किया.

इस घटना के बाद, उन्होंने समाज में फैली बुराइयों को महसूस किया और इन सभी के खिलाफ लड़ने का फैसला किया. थॉमस पायने द्वारा लिखित पुस्तक “राइट्स ऑफ मेन” ने उन्हें जातिवाद, अस्पृश्यता, महिलाओं की दयनीय स्थिति, किसानों की खराब स्थिति आदि जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आंदोलन करने के लिए प्रेरित किया.

ज्योतिबा फुले के मौलिक कार्य और सामाजिक सुधार:

उनका पहला और सबसे महत्वपूर्ण काम महिलाओं की शिक्षा के लिए था और उनकी पहली अनुयायी खुद उनकी पत्नी थीं जिन्होंने जीवन भर उनका साथ दिया.

1848 में, ज्योतिबा ने लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला, जो देश में लड़कियों के लिए पहला स्कूल था, ताकि उनकी कल्पनाओं और आकांक्षाओं का न्यायपूर्ण और समान समाज बनाया जा सके. उनकी पत्नी सावित्रीबाई खुद स्कूल में पढ़ाती थीं. 

लेकिन लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयास में, एक बहुत ही अकल्पनीय घटना घटी जब ज्योतिबा को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. हालांकि, इतने दबावों और धमकियों के बावजूद, वह अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हुए और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ते रहे और इसके खिलाफ लोगों में जागरूकता फैलाते रहे.

1851 में उन्होंने एक बड़ा और बेहतर स्कूल शुरू किया जो बहुत प्रसिद्ध हुआ. इस स्कूल में जाति, धर्म और पंथ के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था और इसके दरवाजे सभी के लिए खुले थे.

ज्योतिबा फुले बाल विवाह के विरोधक तथा विधवा विवाह के समर्थक भी थीं. उन्हें ऐसी महिलाओं से बहुत सहानुभूति थी जो शोषण की शिकार थीं या किसी कारण से परेशान थीं, इसलिए उन्होंने ऐसी महिलाओं के लिए अपने घर के दरवाजे खुले रखे जहां उनकी देखभाल की जा सके.

ज्योतिबा तथाकथित निम्न जाति की मुक्ति के लिए सक्रिय रूप से कार्यरत थे, खासकर अछूतों के लिए. इसके आलावा, वह संभवत: अछूतों को “दलित” के रूप में संदर्भित करने वाले पहले व्यक्ति थे, जिसका मतलब है जो टूट गए है, उत्पीड़ित और शोषित हैं और तथाकथित वर्ण व्यवस्था से बाहर हैं.

निम्न जातियों और अछूतों के उत्थान के लिए 24 सितंबर 1873 को उन्होंने “सत्यशोधक समाज” की स्थापना की. इस समाज का मुख्य उद्देश्य यह था कि किसी के साथ जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव न किया जाए और एक समान समाज का निर्माण किया जाए.

सत्यशोधक समाज धार्मिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों जैसे मूर्ति पूजा, पुजारियों की आवश्यकता और अतार्किक रीति-रिवाजों आदि के भी खिलाफ था.

इसलिए ज्योतिबा फुले ने समाज के कमजोर और पिछड़े लोगों के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया; वह अपने विचारों और कार्यों के कारण अपने समय से बहुत आगे थे.

डॉ भीमराव अंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar):

Social reformers of India
Dr. Bhimrao Ambedkar

भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को भारत के महू नामक एक कस्बे में हुआ था. भीमराव अम्बेडकर “बाबा साहेब (Baba saheb)” के नाम से भी प्रसिद्ध थे. उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल सेना में सूबेदार थे और माता भीमाबाई गृहिणी थीं.

बाबासाहेब तथाकथित महार जाति से सम्बंधित थे, जिनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता था. बचपन से ही उन्हें कई तरह के सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ा था, लेकिन समाज से तमाम भेदभाव के बावजूद उनके पिता सेना में रहकर अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की क्षमता रखते थे.

स्कूल में अम्बेडकर के साथ अन्य दलित बच्चों की तरह अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता था, वे तथाकथित उच्च जाति के बच्चों के साथ नहीं बैठ सकते थे और न ही उन्हें एक ही नल से पानी पीने की आजादी थी.

अम्बेडकर पढ़ाई में बहुत अच्छे थे और बॉम्बे (मुंबई) से अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद, उच्च शिक्षा और शोध के लिए अमेरिका चले गए. बाबासाहेब ने न्यूयॉर्क शहर में कोलंबिया विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर और शोध पूरा किया, जिसके बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अध्ययन किया और यहां से अपनी मास्टर और डॉक्टरेट की डिग्री भी प्राप्त की.

तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपनी प्रतिभा और क्षमता के दम पर दुनिया के बेहतरीन संस्थानों से बहुत अच्छी शिक्षा प्राप्त की. उन्होंने निपुणता पूर्वक कानून की डिग्री भी हासिल कर ली थी.

डॉ भीमराव अंबेडकर के मौलिक कार्य और सामाजिक सुधार:

डॉ. अम्बेडकर का मुख्य उद्देश्य निम्न जाति और अछूतों के अधिकारों के लिए लड़ना और इस बुराई को जड़ से मिटाना था. उस समय भारत सरकार की धारा 1919 के तहत अम्बेडकर ने निचली जातियों और अछूतों के लिए अलग चुनाव की मांग की थी, साथ ही उन्होंने ऐसे समुदायों के लिए आरक्षण की भी मांग की थी.

अम्बेडकर ने स्वयं कई प्रकाशन शुरू किए जैसे साप्ताहिक, मूक नायक; निम्न जाति और अछूतों के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से नियमित पत्रिका और बहिष्कृत भारत.

अछूतों के बीच सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से 20 जुलाई 1924 को मुंबई में “बहिष्कृत हितकारिणी सभा” की स्थापना की. उन्होंने अछूतों द्वारा सहन किए जा रहे भेदभाव के खिलाफ एक सार्वजनिक आंदोलन शुरू किया.

1932 में डॉ. अम्बेडकर ने ब्रिटेन में तीसरे गोलमेज सम्मेलन में भी भाग लिया, जिसमें ब्रिटिश सरकार ने सामुदायिक पुरस्कार की घोषणा की थी, जिसके अनुसार ब्रिटिश भारत में विभिन्न समुदायों के लिए अलग-अलग चुनाव का प्रावधान था.

अत: अछूतों को एक अलग निर्वाचक मंडल के रूप में गिना जाता था, जिसका अर्थ था कि केवल अछूतों को उस सीट पर वोट देने का अधिकार था, जहां से अछूत चुनाव लड़ता था.

ब्रिटिश सरकार की प्रकृति सांप्रदायिक और विभाजनकारी थी, इस व्यवस्था का गांधीजी और अन्य कांग्रेसियों ने कड़ा विरोध किया था, जो हिंदुओं को दो भागों में विभाजित करने पर तुली थी.

लेकिन डॉ. अम्बेडकर इस व्यवस्था के पक्ष में थे क्योंकि उनका विचार था कि दलित वर्गों के अधिक से अधिक लोग विधान सभा के लिए चुने जाएंगे.

लंबी और थकाऊ चर्चाओं के बीच, 25 सितंबर 1932 को अंबेडकर और कांग्रेस के बीच पूना पैक्ट संपन्न हुआ, जिसके अनुसार पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया था लेकिन दलित वर्गों के लिए सीटों का आरक्षण बना रहा. इसलिए, अब से अछूतों को हिंदुओं से अलग नहीं किया जाना था, बल्कि उनके लिए सीटें आरक्षित थीं. हिंदू समाज में अछूतों के राजनीतिक अधिकारों को मान्यता देना एक बड़ा कदम था.

इसी सलाह पर 1950 में भारत के संविधान ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण का लाभ दिया है, जिन्हें पहले से ही कमजोर वर्ग में रखा गया है.

आधुनिक भारत के निर्माण में डॉ. अम्बेडकर का सबसे बड़ा योगदान मसौदा समिति (Drafting committee) के अध्यक्ष के रूप में था. इस संविधान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक न्याय और इसमें मौजूद समानता है.

बाद में डॉ. अम्बेडकर ने जाति व्यवस्था, अंधविश्वास, रीति-रिवाजों और हिंदू धर्म के भेदभाव से नाराज होकर खुद को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर लिया.

अपने पूरे जीवन में उन्होंने हमारे देश की सामाजिक बुराइयों के खिलाफ सामाजिक और राजनीतिक युद्ध जारी रखा; उनका मुख्य योगदान दलितों को स्वाभिमान की ओर ले जाना था.

डॉ. अम्बेडकर भारत में पैदा हुए कर्तृत्ववान इंसानों में से एक थे. मधुमेह की लंबी बीमारी के कारण 6 दिसंबर 1956 को दिल्ली में उनका निधन हो गया.

बाबा आमटे (Baba Amte):

Social reformers of India
Baba Amte

मुरलीधर देवीदास आमटे, जिन्हें बाबा आमटे के नाम से जाना जाता है, आधुनिक भारत के सबसे प्रतिष्ठित समाज सुधारकों में से एक थे. उनका जन्म 26 दिसंबर 1914 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले में हुआ था. उनके पिता का नाम देवीलाल सिंह और माता का नाम लक्ष्मीबाई था.

उनके पिता ब्रिटिश सरकार में एक उच्च पद पर तैनात थे, इस वजह से वे एक धनी परिवार से थे और अपनी युवावस्था में एक आलीशान जीवन जी रहे थे. लेकिन बाबा आमटे बहुत उदार थे और सभी धर्मों और जातियों के लोगों के साथ तालमेल बिठाते थे.

उन्होंने कानून की पढ़ाई की और वर्धा में बहुत अच्छा जीवन व्यतीत किया. वह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कई आंदोलनों का हिस्सा बने जिसका नेतृत्व गांधीजी ने किया था.

बाबा आमटे गांधीजी से अत्यधिक प्रभावित थे और उन्होंने अपने जीवन में गांधीजी के सिद्धांतों और जीने के तरीके का अनुसरण करते थे.

बाबा आमटे के मौलिक कार्य और सामाजिक सुधार:

उन्होंने कुष्ठ रोग (Leprosy) से पीड़ित लोगों की सेवा, पुनर्वास और सशक्तिकरण के रूप में भारत और उसके समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

उस समय कुष्ठरोग या कोढ़ एक ऐसी बीमारी थी, जो कई तरह की भ्रांतियों से जुड़ी थी. बाबा आमटे ने बहुत जोर-शोर से यह जागरूकता फैलाई कि यह कोई संक्रामक रोग नहीं है और अपनी बात को सिद्ध करने के लिए उन्होंने कुष्ठ रोगी के विषाणु को अपने शरीर में इंजेक्ट कर लिया.

उनका उद्देश्य समाज द्वारा छोड़े गए कुष्ठ रोगियों को उपचार, सेवा और पुनर्वास प्रदान करना था. उन्होंने महाराष्ट्र में तीन आश्रमों की स्थापना की, इसी उद्देश्य से बाबा आमटे ने 15 अगस्त 1949 को एक अस्पताल की भी स्थापना की.

इसके अलावा उन्होंने वन, पारिस्थितिक संतुलन और वन्यजीव संरक्षण के बारे में लोगों में जागरूकता बढ़ाई. वह नर्मदा बचाओ आंदोलन से भी जुड़े थे और सरदार सरोवर बांध के कारण विस्थापितों के अधिकारों के लिए लड़े थे.

उन्होंने अपना पूरा जीवन भारत और समाज कल्याण के लिए समर्पित कर दिया. 9 फरवरी 2008 को महाराष्ट्र के आनंदवन में उनका निधन हो गया.

विनोबा भावे (Vinoba Bhave):

Social reformers of India
Vinoba Bhave

विनायक नरहरि, जिन्हें आचार्य विनोबा भावे के नाम से भी जाना जाता है, आधुनिक भारत के महत्वपूर्ण मानवतावादियों और समाज सुधारकों में से एक रहे हैं. उनका जन्म 11 सितंबर 1895 को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के गागोडे गांव में एक ब्राह्मण परिवार में नरहरि शंभू राव और रुक्मणी देवी के घर हुआ था.

विनोबा भगवद गीता से बहुत प्रेरित थे, उनका आध्यात्मिकता के प्रति बहुत झुकाव था और वे सभी धर्मों की अच्छाई में विश्वास करते थे.

विनोबा भावे गांधीजी के भाषणों से बहुत प्रभावित हुए और अहमदाबाद में उनके साथ शामिल हुए, वह गांधीजी के अध्यापन, साफ-सफाई और खादी के प्रचार जैसे रचनात्मक कार्यक्रमों में लगे रहे.

विनोबा भावे के मौलिक कार्य और सामाजिक सुधार:

उनका मुख्य योगदान भूदान आंदोलन में था जो 18 अप्रैल 1951 को तेलंगाना राज्य के पोचमपल्ली से शुरू हुआ था. धीरे-धीरे इस आंदोलन ने गति पकड़ी और पूरे भारत में घूमते हुए जमींदारों से गरीब किसानों को भूमि दान करने का आह्वान किया गया.

उपहार के रूप में जमीन मिलने के बाद उन्होंने अपनी जमीन गरीब लोगों को खेती के लिए दे दी. इसलिए उनका भूदान आंदोलन लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने में एक अलग तरह का योगदान था.

उन्होंने निरंतर गांधीवादी और अहिंसक तरीके से महिलाओं को खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक आश्रम और समुदाय “ब्रह्म विद्या मंदिर” की भी स्थापना की.

विनोबा भावे धार्मिक उदारवाद के महान विश्वासी थे और उन्होंने अपने लेखन और शिक्षाओं के माध्यम से इसे आम लोगों को समझाने की कोशिश की.

वह “भगवद गीता” से बहुत प्रभावित थे और उन्होंने इसका मराठी भाषा में अनुवाद किया.

इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का विरोध करने के लिए उनकी आलोचना की गई थी, दरअसल उन्होंने इस आयोजन को “अनुशासन पर्व” बताया. हांलाकि, उनका वास्तविक विचार यह बताना था कि शासक होने पर भी सभी को नियमों का पालन करना चाहिए.

उन्होंने जीवन भर गांधी के सिद्धांतों का पालन किया और समाज की सेवा की. आचार्य विनोबा भावे का 15 नवंबर 1982 को वर्धा, महाराष्ट्र में निधन हो गया.

मदर टेरेसा (Mother Teresa):

Social reformers of India
Mother Teresa

“संख्याओं के बारे में कभी चिंता न करें, एक समय में एक व्यक्ति की मदद करें और अपने निकटतम व्यक्ति से शुरुआत करें” – मदर टेरेसा.

मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को मैसेडोनिया के स्कोप्जे में हुआ था. उसका नाम अंजेज़ो गोन्शे बोजाक्सीहु (Anjezë Gonxhe Bojaxhiu) था, जो एक रोमन कैथोलिक धार्मिक सिस्टर थी. उनके माता-पिता का नाम निकोल बोजाक्सीहु और ड्रैनाफाइल बोजाक्सीहु था.

12 साल की छोटी उम्र से ही उन्हें अपने अंतःकरण में एक धार्मिक आवाज का अहसास हो गया था. 18 साल की उम्र में, उन्होंने नन बनने का फैसला किया और डबलिन की Sisters of Loreto संस्था के साथ जुड़ गई. यहां उन्हें एक नया नाम मिला, मैरी टेरेसा (Mary Teresa), कई सालों तक यहां काम करने के बाद, वह भारत के दार्जिलिंग घूमने आईं.

बाद में टेरेसा कलकत्ता चली गईं और वहां सेंट मैरी हाई स्कूल में पढ़ाना शुरू किया. यह स्कूल शहर के गरीब बंगाली परिवार की लड़कियों को समर्पित था.

6 साल तक स्कूल में काम करने के बाद 24 मई 1937 को उन्हें लॉरेटो नन की परंपरा के रूप में “मदर (Mother)” की उपाधि दी गई और उसके बाद उन्हें दुनिया में “मदर टेरेसा (Mother Teresa)” के नाम से जाना जाने लगा.

अगस्त 1948 में, उन्होंने लोरेटो कॉन्वेंट छोड़ दिया और भ्रमण पर निकल गईं. इसके बाद उन्होंने 6 महीने की डॉक्टरी शिक्षा ली और कलकत्ता के अछूत, अवांछित और अप्रिय लोगों के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया.

मदर टेरेसा के मौलिक कार्य और सामाजिक सुधार:

उनका पूरा जीवन समाज के गरीब और जरूरतमंद लोगों की सेवा के लिए समर्पित था. एक गैर-भारतीय होने के बावजूद उन्होंने अपना लगभग पूरा जीवन भारत के जरूरतमंद और गरीब लोगों की मदद करने में लगा दिया था.

उन्होंने 1948 में भारत (कलकत्ता) से अपने सामाजिक मिशन की शुरुआत की. वह भारत के गरीब और जरूरतमंद लोगों की मदद करने के लिए विभिन्न धर्मों और जातियों के लोगों को एक साथ लाने में सफल रही.

निम्न जाति और अछूत लोग जिन्हें डॉक्टर और वैद्य आदि द्वारा छुआ नहीं जाता था और यदि उनके प्रियजनों द्वारा उनकी सेवा नहीं की जाती थी, तो वे दवा के अभाव में मर जाते थे.

मदर टेरेसा ने शहर के गरीब लोगों की दुर्दशा को देखते हुए एक स्कूल खोलने का फैसला किया और संक्रामक रोगों के डर से परिवार द्वारा छोड़े गए लोगों के लिए एक आश्रय गृह का निर्माण किया. इसी के साथ वर्ष 1950 में मात्र 12 लोगों से मिलकर उन्होंने “Charity of Missionaries” की स्थापना की.

वह गरीबों, कमजोरों और मौत से जूझ रहे लोगों की सेवा करती थीं. मदर टेरेसा और उनके संगठन के लोग उन लोगों को लेने के लिए सड़कों पर घूमते रहे जिनके परिवारों ने उन्हें छोड़ दिया है.

वह उन रोगियों के जीवन की सभी आवश्यकताओं को पूरा करना चाहती थी ताकि वे अपने जीवन के अंतिम क्षण तक गरिमा के साथ जी सकें. मदर टेरेसा ने सड़कों पर रहने वाले बच्चों के लिए ऐसे 20 मिशनरी घर बनाए.

मानवता के लिए उनके बहुमूल्य योगदान के लिए, उन्हें 1979 में “नोबेल शांति पुरस्कार” से सम्मानित किया गया और 1980 में भारत में “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया.

बीमारों और गरीबों की मदद के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाली मदर टेरेसा का 5 सितंबर 1997 को 87 वर्ष की आयु में निधन हो गया.

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