Shaniwar Wada information in Hindi – महाराष्ट्र के पुणे शहर में स्थित शनिवार वाड़ा (Shaniwar Wada) अपने आप में कई अनसुने ऐतिहासिक क्षण, राजनैतिक षडयंत्रो, मुहब्बत के अफसानों और भूतिया कहनियों जैसे रहस्यों को समेटे हुए है.
शनिवार वाड़ा न केवल बाजीराव-मस्तानी (Bajirao-Mastani) की अधूरी प्रेम कहानी पर प्रकाश डालता है, बल्कि पेशवाओं के उत्थान और पतन की रहस्यमय गाथा की भी याद दिलाता है. यह विशाल किला अपने ऐतिहासिक महत्व के लिए भी पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है
शनिवार वाड़ा महाराष्ट्र के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है, इसके अलावा इस दुर्ग को भारत के सबसे रहस्यमय और भूतिया स्थानों में भी शामिल किया गया है.
शनिवार वाड़ा दुर्ग का निर्माण कब किया गया था? When was Shaniwar Wada Fort built?
शनिवार वाडा का निर्माण सम्राट बाजीराव प्रथम (Bajirao I) ने करवाया था, जिन्होंने 18वीं शताब्दी में मराठा साम्राज्य को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया था.
बाजीराव प्रथम मराठा शासक छत्रपति शाहू महाराज (Shahu Maharaj) के प्रधान (पेशवा) थे. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से अपना नियंत्रण खोने के बाद तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध (Anglo-Maratha War) के बाद मराठों द्वारा इस दुर्ग का निर्माण किया गया था.
10 जनवरी, 1730 को पेशवा बाजीराव प्रथम ने इस भव्यदिव्य ऐतिहासिक दुर्ग की नींव रखी थी. वहीं शनिवार के दिन इस विशाल दुर्ग की आधारशिला रखने के कारण इस दुर्ग का नाम “शनिवार वाड़ा” रखा गया और यह 1732 में बनकर तैयार हुआ.
शनिवार, 22 जनवरी, 1732 को हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों के साथ शनिवार वाड़ा का उद्घाटन समारोह संपन्न हुआ था और इसके निर्माण में 16,110 रुपये खर्च किए गए थे. उस समय यह बहुत बड़ी राशि थी.
इस भव्य दुर्ग के भवन-निर्माण की जिम्मेदारी राजस्थान के ठेकेदारों (कुमावत क्षत्रियों) को सौंपी गई थी, दुर्ग का निर्माण पूरा होने के बाद, उन्हें पेशवा द्वारा ‘नाइक’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था.
कहा जाता है कि इस पेशवाई दुर्ग को पहले केवल पत्थरों का उपयोग करके बनाया जाना था, लेकिन बाद में राजर्षि शाहू महाराज द्वारा पत्थरों का उपयोग करके दुर्ग के निर्माण पर आपत्ति जताने के बाद इस दुर्ग का निर्माण ईंटों से किया गया था.
दरअसल, उस समय केवल राजा-महाराजाओं को ही पत्थर से बने भवन के निर्माण का अधिकार था, हालांकि जब तक राजर्षि शाहू महाराज का आदेश प्राप्त हुआ, तब तक इस ऐतिहासिक दुर्ग का आधार तैयार हो चुका था.
बाद में मराठा साम्राज्य के पेशवाओं ने ईंटों से ही इस दुर्ग की सात मंजिला इमारत का निर्माण कराया. इस विशाल ऐतिहासिक संरचना के निर्माण के लिए लकड़ी जुन्नार के जंगलों से, पत्थर चिंचवड़ के पास के खदानों से और चूना जेजुरी के खदानों से लाया गया था.
शनिवार वाड़ा दुर्ग की संरचना – Structure of Shaniwar Wada Fort
शनिवार वाड़ा में प्रवेश के लिए 5 दरवाजे बनाए गए थे. जिनमें से दिल्ली दरवाजा, मस्तानी दरवाजा, खिडकी दरवाजा, गणेश दरवाजा, जंभूल दरवाजा या नारायण दरवाजा प्रमुख थे.
शनिवारवाड़ा के मुख्य द्वार को “दिल्ली दरवाजा” के नाम से जाना जाता है. यह दिल्ली की तरफ उत्तर की ओर खुलता है. यह दरवाजा बहुत ऊंचा और चौड़ा है.
शनिवाड़ा में “मस्तानी दरवाजा” या ‘अली बहादुर दरवाजा’ उत्तर की ओर खुलता है, बाजीराव की दूसरी पत्नी मस्तानी अक्सर बाहर जाते समय इस दरवाजे का इस्तेमाल करती थीं. इसलिए इस दरवाजे का नाम “मस्तानी दरवाजा” पड़ा. इसके अलावा इसे अली दरवाजा के नाम से भी जाना जाता है.
शनिवार वाड़ा में पूर्व दिशा में ‘खिड़की दरवाजा’ स्थित है, इसके अलावा दक्षिण-पूर्व में ‘गणेश दरवाजा’ है, जिसका इस्तेमाल पेशवा की महिलाएं कस्बा गणपति मंदिर में दर्शन के लिए जाते समय करती थी.
इसके अलावा दक्षिण दिशा में “नारायण दरवाजा” खुलता है, जिसका उपयोग दासियां आवाजाही के लिए करती थीं, इस दरवाजे का दूसरा नाम “जंभूल दरवाजा” है.
सबसे ऊपरी मंजिल पर पेशवा का निवास था जिसे “मेघदंबरी” कहा जाता था. इस विशाल सात मंजिला दुर्ग की दीवारों पर रामायण और महाभारत के चित्र प्रदर्शित हैं.
यह भी माना जाता है कि 17 किमी दूर अलंदी में स्थित ज्ञानेश्वर मंदिर की चोटी (शिखर) शनिवारवाड़ा की सबसे ऊपरी मंजिल से दिखाई देती थी.
इतना ही नहीं इस भव्य शनिवार वाड़ा दुर्ग में और भी कई छोटे-छोटे भवन, जलाशय और फ़व्वार्रों आदि का निर्माण किया गया है, जो पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है.
परिसर में “एक हजारी करंजा” के नाम से एक कमल के आकार का प्रभावशाली फव्वारा था. इसमें से 1000 जलधाराएं निकलती थीं, यह फव्वारा शिशु पेशवा सवाई माधवराव (Peshwa Sawai Madhavrao) के जन्म की खुशी में बनाया गया था.
1758 तक दुर्ग में कम से कम एक हजार लोग रहते थे.
जून 1818 में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा दुर्ग पर कब्जा कर लिया गया था, पेशवा बाजीराव द्वितीय द्वारा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सर जॉन मैल्कम को अपना सिंहासन सौंपने के बाद उन्होंने बिठूर में राजनीतिक निर्वासन में प्रवेश किया.
27 फरवरी, 1828 को, महल परिसर के अंदर एक भीषण आग लग गई जो सात दिनों तक जलती रही, जिससे महल को भारी क्षति हुई और यह लगभग खंडहर में बदल गया.
शनिवार वाड़ा की दर्दनाक घटना – The painful incident of Shaniwar Wada
पेशवा बाजीराव प्रथम के दो पुत्र थे, बालाजी बाजीराव (Balaji Bajirao) उर्फ नानासाहेब (Nanasaheb) और रघुनाथ राव (Raghunath Rao) उर्फ राघोबा (Raghoba). पेशवा बाजीराव प्रथम की मृत्यु के बाद नानासाहेब पेशवा बने.
पेशवा नाना साहब के भी तीन बेटे थे, जिनमें विश्वासराव (Vishwasrao), माधवराव (Madhavrao) और नारायण राव (Narayan Rao) थे.
विश्वासराव और माधवराव की मृत्यु के बाद 17-18 वर्ष की आयु में ही नारायण राव को पेशवा बना दिया गया. वहीं नारायण राव को कम उम्र में पेशवा बनाए जाने के कारण उनके चाचा रघुनाथ राव को उनके संरक्षक और राजनीतिक सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था.
ऐसा माना जाता है कि रघुनाथ राव खुद पेशवा बनना चाहते थे और शासन को अपने नियंत्रण में लेना चाहते थे. हालांकि, नारायण राव को अपने चाचा रघुनाथ राव की इस हरकत पर शक था, जिससे दोनों के बीच कड़वाहट बढ़ने लगी और दोनों के रिश्ते दिन-ब-दिन खराब होते गए.
बाद में स्थिति इतनी खराब हो गई कि दोनों के सलाहकारों ने चाचा-भतीजे को एक-दूसरे के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया, जिसके बाद नारायण राव ने अपने चाचा रघुनाथ राव को नजरबंद कर दिया.
जिसके बाद उनकी काकी और रघुनाथ राव की पत्नी आनंदीबाई (Anandibai) के स्वाभिमान को बहुत ठेस पहुंची और वह गुस्से से आग बबूला हो गईं. आनंदीबाई ने ‘गार्दी’ के नाम से प्रसिद्ध भीलों की एक शिकारी जनजाति को एक पत्र लिखकर अपने भतीजे नारायण राव को जान से मारने का आदेश दिया.
दरअसल, गार्दी के नारायण राव के साथ खराब संबंध थे, इसका फायदा उठाकर आनंदीबाई ने नारायण राव को मारने के लिए सुमेर सिंह गार्दी को चुना था. नारायण राव की काकी के कहने पर एक दिन मौका देखकर गार्दी के एक दल ने शनिवार वाड़ा पर हमला बोल दिया.
शनिवार वाडा में प्रवेश करते ही जब गार्दी हथियार लेकर नारायण राव की ओर बढ़े, तो नारायण राव अपनी जान बचाने के लिए “काका मला वाचवा” (चाचा मुझे बचा लो) चिल्लाते हुए अपने चाचा रघुनाथ राव के कमरे की ओर भागे. हालांकि, इससे पहले कि नारायण राव अपने चाचा के कमरे तक पहुंच पाते, गार्दियों ने बेरहमी से उस पर हमला किया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया.
हालांकि कुछ इतिहासकार इस घटना के बारे में यह भी मानते हैं कि नारायण राव अपने चाचा के सामने अपनी जान बचाने के लिए मदद की गुहार लगाते रहे, लेकिन उनके चाचा ने उनकी जान बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया और फिर गार्दियों ने उनके सामने ही नारायण राव पर हमला कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया और फिर नारायणराव के शरीर को नदी में बहा दिया गया.
स्थानीय लोगों द्वारा शनिवार वाड़ा के बारे में यह अफवाह है कि नारायणराव पेशवा की आत्मा अभी भी दुर्ग में निवास करती है. कहा जाता है कि इस ऐतिहासिक दुर्ग में युवा पेशवा नारायण राव की चीखें आज भी गूंजती हैं.
फिलहाल शनिवार वाड़ा के इस रहस्य का पर्दाफाश अभी तक नहीं हो पाया है. हालांकि, इसे महाराष्ट्र राज्य के प्रमुख पर्यटन और ऐतिहासिक स्थानों में से एक माना जाता है.
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