कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढे बन माहिं ।
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ।।
ईश्वर हर व्यक्ति के हृदय में विद्यमान है, लेकिन सांसारिक प्राणी उसे नहीं देख सकता है. जैसे कस्तूरी हिरण की नाभि में रहती है. लेकिन वह इसे खोजने के लिए इधर-उधर भागता है, लेकिन इसे नहीं ढूंढ पाता और अंत में मर जाता है.
कबीर सोता क्या करे, जागो जपो मुरार ।
एक दिना है सोवना, लांबे पांव पसार ।।
कबीर खुद को संबोधित करते हैं और कहते हैं कि कबीर! तुम सोने में अपना समय क्यों बर्बाद करते हो? जागो और भगवान कृष्ण का स्मरण करो और अपने जीवन को सफल बनाओ. एक दिन आपको इस शरीर को छोड़ कर सोना होगा. यानी इस दुनिया को छोड़ कर जाना ही है.
कागा काको धन हरे, कोयल काको देय ।
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ।।
कागा किसका धन हरता है, जिससे दुनिया उससे नाराज़ हो जाती है, और क्या कोयल किसी को अपनी धुन देती है, वह अपनी मधुर (शब्द) ध्वनि से ही दुनिया को मोहित कर लेती है.
कबीरा सोई पीर है, जो जा नै पर पीर ।
जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि वही सच्चा पीर (साधु) है जो दूसरों के पीर (आपत्तियों) को अच्छी तरह से समझता हैं, जो दूसरों के पीर को नहीं समझता हैं, वह बेपीर और काफिर होता हैं.
कबिरा मनहि गयंद है, आंकुश दै-दै राखि ।
विष की बेली परि हरै, अमृत को फल चाखि ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि मन हाथी के समान है, इसे अंकुश की मार से अपने कब्जे में रखना चाहिए, इसका फल विष के प्याले को त्यागने और अमृत का फल पाने के समान है.
कबीर सीप समुद्र की, रटे पियास पियास ।
और बूंदी को ना गहे, स्वाति बूंद की आस ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि प्रत्येक जीव को एक ऐसी वस्तु ग्रहण करना चाहिए जो उसे सर्वश्रेष्ठ फल दे; जिस तरह समुद्री सीप मोती को उत्पन्न करने के लिए पियासी-पियासी कह कर पुकारती है, लेकिन वह स्वाति जल की बूंद के अलावा अन्य कोई पानी ग्रहण नहीं करती है.
कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा खिन मीठ ।
काल्ह जो बैठा भंडपै, आज भसाने दीठ ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार नाशवान है और एक पल के लिए यह कड़वा और क्षण भर के लिए मधुर लगता है. जिस तरह एक व्यक्ति कल मंडप में बैठा हो और आज उसे श्मशान देखना पड़े.
कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि अपने आप को ठगना उचित है. किसी और को ठगना नहीं चाहिए. खुद को ठगने से खुशी मिलती है और दूसरों को ठगने से आपको दुख होता है.
कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव ।
क़हत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि भवसागर के समान संसार से परे होने के लिए कथा-कीर्तन की नाव चाहिए इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है.
गांठी न थामहिं बांध ही, नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि जो साधु धन का संयोजन नहीं करते और जो स्त्रियों से स्नेह नहीं करते, हम ऐसे साधु के चरणों की धूल की तरह है.
चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।
वाके अङ्ग लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ।।
साधु चंदन के समान है और सांसारिक विषय वासना सर्प के समान है, जिसमें विष चढ़ता हि रहता है तथा सत्संग करने से कोई विकार पास नहीं आता है. क्या विषयों में फंसा इंसान कभी किसी तरह से दूर हो सकता है?
घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ।।
तेल खाने से घी के दर्शन करना ही उत्तम है. मूर्ख मित्र बुरा है और बुद्धिमान शत्रु अच्छा है. मूर्ख में ज्ञान न होने के कारण जाने कब धोखा दे दे, लेकिन अगर चतुर शत्रु नुकसान भी पहुंचाता है, तो उसमें भी चतुराई की चमक होगी.
गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच ।
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले सो नीच ।।
विवाद और दुःख तथा मृत्यु गाली से उत्पन्न होती है. जो गाली सुनकर हार मानकर दूर चला जाता है वह साधु जाना जाता है, जो कि एक सज्जन है, और जो गाली देने के बदले में गाली देना शुरू कर देता है वह नीच है.
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, तत का छानन हार ।।
भगवान राम का नाम दूध के समान है और सांसारिक व्यवहार पानी जैसी निस्सार चीज है. हंस रूप एक साधु है, जो भगवान को तत्व वस्तु से हटा देता है.
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ।।
चलती चक्की को देखकर कबीर रोने लगे कि दोनों पाटों के बीच आकर कोई अनाज साबुत नहीं बचा है, अर्थात कोई प्राणी अभी तक इस संसार रूपी चक्की से निष्कलंक (पापरहित) होकर बाहर नहीं गया है.
जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी ।
राम नाम रसना बसे, लिजै जनम सुधारि ।।
जिस क्षण साधु दिखाई पड़ता है, उसे श्रेष्ठ समझना चाहिए. और राम नाम रट कर अपना जन्म सुधारना चाहिए.
जा घर गुरु की भक्ति नहि, संत नहीं समझना ।
ता घर जाम डेरा दिया, जीवन भये मसाना ।।
जिस घर में भगवान और संतों का कोई सम्मान नहीं है, ऐसे घर में यमराज का निवास रहता है, और वह घर एक श्मशान की तरह है, न कि गृहस्थ का घर.
जा कारण जग ढूंढिया, सो तो घट ही माहिं ।
परदा कीया भरम का, ताते सूझे नाहिं ।।
ईश्वर, जिसे आप दुनिया में खोजते हैं, वह आपके मन में व्याप्त हैं. आप भ्रम के पर्दे के कारण नहीं देख पाते, इसलिए आप, जीव, अपने मन के अज्ञान को नष्ट करके ईश्वर के दर्शन करें. अर्थात बिना ज्ञान के हरि दर्शन नहीं हो सकता.
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़ हरि भजे, भकत कहावै सोय ।।
जब तक जीव का मन संसार की प्रवृत्तियों में लगा रहता है, तब तक उस जीव से भक्ति नहीं हो सकती है. यदि कोई जीव इस संसार के मोह आदि को त्याग कर भगवान विष्णु को याद करता है, तो ही उसे भक्त कहा जा सकता है. अर्थात भक्ति बिना विरक्ति के नहीं मिलती.
ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर मांहि ।
मूर्ख लोग न जानिए, बाहर ढ़ूंढ़त जांहि ।
जिस तरह पुतली आंखों के अंदर रहती है और पूरी दुनिया को देख सकती है, लेकिन खुद को नहीं, उसी तरह भगवान हृदय में विराजमान होते है और मूर्ख लोग बाहर तलाश करते हैं.
जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ।।
निराकार ब्रह्म का कोई रूप नहीं है. वह हर जगह सार्वभौमिक है, न तो वह विशेष रूप से सुंदर है और न ही वह बदसूरत है, यह अद्वितीय तत्व फूल की गंध से पतला है.
जल में बर्से कमोदनी, चन्दा बसै अकास ।
जो है जाको भावना, सो ताही के पास ।।
जो व्यक्ति जिसके प्रिय होता है वह उसके पास ही रहता है, जैसे कुमुदिनी पानी में रहने पर भी चंद्रमा से प्यार करने के कारण उसकी चांदनी में मिलती है.
जाके जिभ्या बंधन नहीं हृदय में नाहिं सांच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया कांच ।।
जिसका अपनी जीभ पर अधिकार नहीं है और उसके मन में सच्चाई नहीं है, तो आप ऐसे व्यक्ति के साथ रहकर कुछ भी हासिल नहीं कर सकते.
जो तू चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ।।
भगवान कहते हैं यदि तुम मुक्ति चाहते हो तो मेरे सिवाय सब आशा छोड़ दो और मेरे समान बनो, तो तुम्हें कुछ भी परवाह नहीं होगी.
ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत ।
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ।।
सत्संग के बिना जितना समय व्यतीत होता है, उसे फलहीन समझना चाहिए. यदि ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति नहीं है, तो इस जीवन को पशु जीवन माना जाना चाहिए. भगवद भक्ति से ही मानव जीवन सफल हो सकता है. अर्थात भक्ति के बिना मानव जीवन व्यर्थ है.
तीर तुपक से जो लड़ै, सो तो शूर न होय ।
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ।।
केवल धनुष और तलवार से लड़ने वाला मानव नायक नहीं कहा जाता है. सच्चा नायक वह है जो माया को त्याग कर भक्ति करता है.
तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय ।
सहजै सब बिधिपाइये, जो मन जोगी होय ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि हर कोई शरीर के साथ योगी बन जाता है, लेकिन शायद ही कोई कभी मन के साथ योगी होता है, जो आदमी मन से योगी बन जाता है, उसे सब कुछ आसानी से मिल जाता है.
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर ।
तब लग जीव कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ।।
सूरज के उगने तक तारा चमकता रहता है; इसी प्रकार जीव तब तक कर्म करता रहता है जब तक जीव को पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता.
दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी मौन ।
रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ।
इस शरीर में जो प्राण है, वह इस शरीर में दस द्वारों से निकल सकता है. इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है. यानी हर इन्द्रिय मृत्यु का कारण बन सकती है.
न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ।।
नहाने और धोने से क्या लाभ हैं? जब मन की गंदगी (पाप) दूर नहीं होती है. जैसे मछली हमेशा पानी में जिंदा रहती है और उसे धोने के बाद भी उसकी दुर्गंध दूर नहीं होती है.
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित हुआ न कोय ।
एकै आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।
किताबों का अध्ययन करते-करते जाने कितने लोग मर गए लेकिन कोई पंडित नहीं हुआ. प्रेम, मोक्ष शब्द को पढ़कर व्यक्ति विद्वान बन जाता है, क्योंकि पूरी दुनिया की शक्ति और महत्व प्रेम पर निर्भर है. जो व्यक्ति प्रेम के महत्व को उचित रूप से समझने में सक्षम होगा, पूरी दुनिया के प्राणी भाईचारे के एक अनूठे सूत्र में बंधे होंगे और उसके दिल में हिंसक भावनाओं को नष्ट हो जाएगी और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना जागृत होगी.
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि मानव जीवन पानी के बुलबुले की तरह है जो थोड़े ही समय में नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार प्रातःकाल होने पर तारांगण प्रकाश के कारण छिप जाते हैं.
संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे भाग १