लगी लगन छूटे नाहिं, जीभी चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥
यदि किसी को किसी वस्तु की लगन लग जाती है, तो वह उसे नहीं छोड़ता है चाहे कितना भी नुकसान हो. जैसे अंगारे में वह मिठास क्या है जिसे चकोर (पक्षी) चबाता है? तात्पर्य यह है कि चकोर की जीभ और चोंच जल जाने पर भी वह अंगारे को चबाना नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार, जब भक्त भगवान की लगन को महसूस करता है, तो चाहे वह कुछ भी हो, वह भक्ति नहीं छोड़ता है.
भक्ति गेंद चौगान कि, भावे कोई ले जाए ।
कह कबीर कछु भेद नहीं, कहां रंक कहां राय ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति एक गेंद की तरह है, इसे जो भी ले जाना चाहता है वह ले जाए. इसमें राजा क्या और कंगाल क्या किसी में कुछ भेद नहीं समझा जाता है?
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल स्नेही सइयां, आवा अन्त का यार ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि आपके बचपन का दोस्त और जो शुरू से अंत तक का दोस्त है, वह हमेशा आपके अंदर है. तू जरा अपने भीतर के परदे को हटा कर देख भगवान तुम्हारे सामने ही आ जाएंगे.
अंतर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥
हे प्रभु, आप ही हैं जो हृदय की बात जानते हैं और आप आत्मा के मूल हैं, जो आप हांथ छोड़ दोगे तो हमें और कौन पार लगाएगा.
मैं अपराधी जन्म का, नख-शिख भरा विकार ।
तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥
मैं जन्म से ही अपराधी हूं, मेरे नाखून से लेकर चोटी तक विकार भरा हुआ है, आप ज्ञानी हैं, आप दुखों को दूर करने वाले हैं, भगवान मेरी मदद करें और मुझे सभी दुखों से छुटकारा दिलाएं.
प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा प्रजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥
प्यार न तो बगीचे में उगता है और न ही बाजारों में बेचा जाता है, राजा या प्रजा जिसे वह अच्छा लगे, वह खुद को न्योछावर करके प्राप्त कर लेता है.
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥
जो प्रेम का प्याला पीता है, वह अपने प्रेम के लिए सबसे बड़ा बलिदान देने से भी नहीं हिचकता है, वह अपना सर भी न्योछावर कर देता है. लोभी अपना सिर नहीं दे सकता है, अपने प्यार के लिए बलिदान भी नहीं कर सकता है और नाम प्यार का लेता है.
सुमिरन सों मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्राण तजे तेहि संग ॥
कबीर जी कहते हैं कि भक्त अपने मन को भगवान की साधना में लगा देता है, एक पल के लिए भी उसे नहीं भूलता, यहां तक कि अपने जीवन को भी उसके ध्यान में लगा देता है. अर्थात, वह भगवान की भक्ति में इतना तल्लीन हो जाता है कि उसे शिकारी के आने (प्राण हरने वाला) के बारे में भी पता नहीं चलता है.
सुमिरत सूरत जगाय कर, मुख से कछु न बोल ।
बाहर का पट बंद कर, अन्दर का पट खोल ॥
एकचित्त होकर परमात्मा का सुमिरन करो और अपने मुंह से कुछ भी न बोलो, आपको बाहरी दिखावे को रोकना चाहिए और अपने सच्चे दिल से भगवान का ध्यान करना चाहिए.
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥
भगवान का सच्चा नाम दूध की तरह है और यह दुनिया पानी की तरह व्यवहार करती है. एक हंस जैसा भिक्षु (सच्चा भक्त) होता है, जो दूध को पानी से अलग करता है, जो दूध को पानी से निकालता है और उसे पीता है, और पानी छोड़ देता है.
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥
जिस प्रकार तिल में तेल और चकत्ते पत्थर में अग्नि में छिपी होती हैं, उसी प्रकार आपका सांई (मालिक) ईश्वर आप में हैं, यदि आप जाग सकते हैं तो जागें और आप में ईश्वर देखें और स्वयं को पहचानें.
जा कारण जग ढूंढिया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥
जिस भगवान को आप पूरी दुनिया में ढूंढते हैं वह आपके मन में है. आपके भीतर भ्रम का पर्दा है, इसलिए आपको भगवान दिखाई नहीं देते हैं.
जबही नाम हिरदे धरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगारी आग की, परी पुरानी घास ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान का नाम लेने से ही पाप नष्ट हो जाते हैं, जिस तरह आग की चिंगारी पुरानी घास पर पड़ते ही घास जल जाती है, उसी तरह भगवान का नाम लेने से सारे पाप दूर हो जाते हैं.
नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल संत जन, नाम सनेही सोय ।।
कबीर जी कहते हैं कि न तो शीतलता चंद्रमा में है और न ही शीतलता बर्फ में है, वही सज्जन शीतल हैं जो ईश्वर के प्रिय हैं, अर्थात मन की वास्तविक शांति भगवान के नाम में है.
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ।।
यदि कोई व्यक्ति इंद्रियों के स्वाद के लिए पूरी नाक तक भरकर खाता है, तो वह प्रसाद कहां रहा? इसका मतलब है कि भोजन या आहार शरीर की रक्षा के लिए है तथा सोच समझकर करें, तभी यह सर्वोत्तम होगा. अर्थात सांसारिक भोग का उपभोग ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण करें.
जब लग नाता जगत का, तब लग भागिति न होय ।
नाता जोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि भक्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक संसार का संबंध है, अर्थात् मन सांसारिक वस्तुओं से ओत-प्रोत है. जो लोग संसार से नाता तोड़ते हैं और भगवान की पूजा करते हैं, वही भक्त होते हैं.
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ।।
जिस तरह मछली को पानी पसंद है, लालची को पैसा पसंद है, मां को पुत्र प्यारा लगता है, वैसे ही भक्त को भगवान पसंद है.
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ।।
लोगों का स्वार्थ देखकर मनरूपी आकाश फट गया उसे दर्जी क्योंकर सी सकता है. इसे तभी ठीक किया जा सकता है जब किसी के दिल का हाल जानने वाला व्यक्ति मिल जाए.
बानी से पहचानिए, साम चोर की धात ।
अंदर की करनी से सब, निकले मुंह की बात ।।
सज्जन और दुष्ट की पहचान उसके वचनों द्वारा की जाती है क्योंकि उसके बारे में सभी विवरण उसके मुख से प्रकट होते हैं. व्यक्ति अपने कार्य करने के तरीके के अनुसार व्यवहार करता है.
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ।।
जब तक भक्ति इच्छा सहित है, तब तक भगवान की सेवा निरर्थक है. अर्थात भक्ति बिना कामनाओं के करनी चाहिए. कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक इच्छाओं से रहित भक्ति नहीं होती तब तक भगवान को कैसे पाया जा सकता है? यह नहीं पाया जा सकता है.
फूटी आंख विवेक की, लखे ना सन्त-असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महंत ।।
जिसकी ज्ञान रूपी आंखें फूटी हुई है, वह संत-असन्त को कैसे पहचान सकता है? उनकी स्थिति यह है कि जिनके साथ उन्होंने दस या बीस शिष्यों को देखा, उन्होंने उसी को महंत समझ लिया.
दया भाव हृदय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जाएंगे, सुनी-सुनी साखी शब्द ।।
जिस व्यक्ति के दिल के अंदर दयालुता नगण्य है और वह ज्ञान की बातें खूब बनाते हैं, चाहे वह कितना भी साखी (भगवान की कथा) क्यों न सुन ले, उसे नर्क ही मिलेगा.
दया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ।।
किस पर दया करनी चाहिए किस पर निर्दयता करनी चाहिए? हे मनुष्य, सभी पर समान भाव रखो. कृमि और हाथी दोनों ही परमात्मा के जीव हैं.
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय ।।
जब मेरे अंदर मैं (अहंकार) था, तब कोई ईश्वर नहीं था, अब ईश्वर है, तो अहंकार गायब हो गया, यानी ईश्वर के दर्शन से अहंकार मिट जाता है.
छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ।।
जो छिन (तुरंत) में उतरे और छिन में चढ़े उसे प्रेम मत समझिये. जो कभी भी घटे नहीं, हरदम शरीर की हड्डियों के भीतर तक में समा जाये वही प्रेम कहलाता है.
जहां काम तहां नाम नहिं, जहां नाम नहिं वहां काम ।
दोनों कबहुं नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ।।
नाम कहीं भी नहीं आ सकता है और जहां हरिनाम है, वहां इच्छाएं मिट जाती हैं. जिस तरह सूर्य और रात्रि नहीं मिल सकते है, उसी तरह जिस मन में भगवान का स्मरण है, वहां कोई इच्छाएं नहीं रह सकती हैं.
कबिरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूक एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि धीरज रखने के कारण ही हाथी मन भर खाता है, लेकिन धीरज नहीं होने के कारण, कुत्ता एक-एक टुकड़े के लिए घर-घर भटकता फिरता है.
ऊंचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊंचा प्यासा जाये ।।
पानी अधिक ऊंचाई पर नहीं रहता, वह नीचे ही बहता है. जो निचे झुकता है वह भर पेट पानी पी लेता है, जो ऊंचा खड़ा रहता है वह प्यासा रह जाता है.
सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।
जैसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ।।
सबसे छोटा बनकर रहने से सभी काम आसानी से बन जाते हैं, जैसे कि दूज के चंद्रमा के सामने सभी सिर झुकाते हैं.
संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को, कबहुं न आवे चूक ।।
जो मनुष्य सत्य को साझा करता है, यानी सत्य का प्रचार करता है और रोटी में से टुकड़ा भी बांटता है, कबीर जी कहते हैं, उस भक्त से कोई त्रुटि या चूक नहीं होती है.
मार्ग चलते जो गिरे, ताकों नाहि दोष ।
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ।।
यह उन लोगों की गलती नहीं मानी जाती है जो सड़क पर चलते समय गिर जाते हैं, लेकिन कबीरदास जी कहते हैं कि जो बैठा रहता है, उसके सिर पर एक कठोर श्राप बना रहेगा, यानी अगर काम करने में बिगड़ जाता है, तो कोशिश करें और इसे सुधारें लेकिन प्रयत्न न करना अधिक दोषपूर्ण है.
जब ही नाम हृदय धरयो, भयो पाप का नाश ।
मानो चिनगी अग्नि की, परी पुरानी घास ।।
जिस प्रकार अग्नि की चिंगारी पुरानी घास में गिरकर उसे जला देती है, उसी प्रकार हरि के ताप से पाप नष्ट हो जाते हैं. जब भी आपके हृदय में नाम स्मरण प्रबल होगा, तभी सभी पाप नष्ट होंगे.
काया काठी काल धुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया वैद्य ईश बस, मर्म न काहू पाय ।।
शरीर रूपी काठी (लकड़ी) को समय की धुन की तरह खाया जा रहा है. लेकिन भगवान भी इस शरीर में रहते हैं केवल कोई बिरला ही इस भेद को जानते हैं.
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ।।
शैल प्रकृति का महासागर है, जिसे कोई भी थाह नहीं सकता है, उसी तरह भगवान की स्तुति के बिना कोई साधु नहीं है, जैसे धन के बिना किसी को शाह नहीं कहा जाता है.
बाहर क्या दिखलाए, अनंतर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ।।
संसार के दिखावे से आपको क्या काम है, आपको अपने भगवान से काम है, इसलिए गुप्त जाप करते हैं.
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ।
एक व्यक्ति जो अपने मन में व्यक्तिगत हित के साथ सेवा करता है वह सेवक नहीं है, वह सेवा के बदले मूल्य चाहता है, सेवा निस्वार्थ होनी चाहिए.
तेरा सांई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास ।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूंढ़त घास ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि, हे मनुष्य आपका स्वामी (भगवान) आपके अंदर उसी तरह है जिस तरह फूलों में खुशबू रहती है. फिर भी, जैसे आप अपने अंदर अज्ञानता से घास में छिपे हुए कस्तूरी मृग को खोजते हैं, वैसे ही आप अपने बाहर ईश्वर को खोजते हैं.
कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत में नाही और उपाव ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि संसार रूपी भवसागर को पार करने के लिए कथा-कीर्तन रूपी नाव की आवश्यकता है, संसार रूपी भवसागर को पार करने का कोई और उपाय नहीं है.
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ।।
हे कबीर! यह तेरा शरीर खोता जा रहा है, अर्थात आपके पूरे जीवन की मेहनत व्यर्थ जा रही है. इसे संत और गोविंद की पूजा करके इसे बेहतर बना ले.
तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ।।
मनुष्य का शरीर एक विमान की तरह है और मन एक काग की तरह है जो कभी नदी में डुबकी लगाता है और कभी आसमान में उड़ता है.
जहं गाहक ता हूं नहीं, जहां मैं गाहक नांय ।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छांय ।।
कबीर जी कहते हैं कि मैं वहां नहीं हूं जहां ग्राहक है, और जहां मैं हूं वहां ग्राहक नहीं हैं, यानी वे मेरी बात सुनने वाले नहीं हैं, लोग बिना ज्ञान के घूमते हैं.
कहता तो बहुता मिला, गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ।।
कहने वाले बहुत हैं, लेकिन कोई भी ऐसा नहीं है जो असली बात समझा सकता है और जो असली बात समझाने वाला नहीं है, तो उसके शब्द का पालन करना बेकार है.
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ।।
सूर्य के उदय होने तक तारा चमकता रहता है, वैसे ही जब तक जीव पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक जीव कर्म के वश में रहता है.
आस पराई राखत, खाया घर का खेत ।
औरन को पत बोधता, मुख में पड़ा रेत ।।
आप दूसरों का ध्यान रखते हैं और अपने घर को नहीं देखते हैं, अर्थात आप दूसरों को ज्ञान देते हैं और आप स्वयं भगवान की पूजा क्यों नहीं करते हैं.
सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुडै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ।।
सोना और साधु दोनों बेहतर हैं, वे सैकड़ों बार टूटते हैं और जुड़ते हैं. वे बुरे लोग हैं जो कुम्हार के घड़े की तरह एक बार टूटकर नहीं जुड़ते हैं, अर्थात बुरे लोग खुद को विपत्ति के समय खो देते हैं.
सब धरती कागज करूं, लेखनी सब वनराय ।
सात समुद्र की मसि करूं, गुरुगुन लिखा न जाय ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि अगर मैं पूरी पृथ्वी का कागज बनाता हूं, सभी जंगलों के वृक्षों की कलम बनाऊ और सभी सात समुद्रों की स्याही बनाऊ, तब भी गुरु की प्रसिद्धि नहीं लिखी जाती.
बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि मेरी आधी साखी चार वेदों का जीवन है, इसलिए मुझे उस दूध का सम्मान करना चाहिए जिसमें घी निकलता है. जिस तरह दूध में घी होता है, ठीक उसी तरह मेरी आधी साखी चारों वेदों का निचोड़ है.
आग जो लागी समुद्र में, धुआं न प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ।।
जब मन में प्रेम की आग लग जाती है, तो दूसरा उसे कैसे जान सकता है? या तो वह जानता है जिसके मन में आग लगी है या आग लगाने वाले को पता होता है.
साधु गांठी न बांधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ।।
साधु गांठ नहीं बांधता, वह तो पेट भर कर भोजन ग्रहण करता है क्योंकि वह जानता है कि भगवान आगे-पीछे खड़े हैं. भाव यह है कि ईश्वर सर्वव्यापी है, जब प्राणी उससे कुछ मांगता है, तो वह उसे दे देता है.
कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बंदगी होय ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि इस दुनिया में या तो भगवान जागते हैं या भगवान के भक्त या पापी जागता हैं, और कोई नहीं जागता.
संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे भाग १
संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे भाग ३
संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे भाग ४
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