Sardar Hari Singh Nalwa History Biography In Hindi – भारत में 18वीं शताब्दी में एक ऐसे वीर योद्धा का जन्म हुआ, जो अपने योद्धा गुण और अद्वितीय युद्ध कौशल से अफगानिस्तान में एक विजेता के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। उनका नाम हरि सिंह नलवा था, और वह एक सिख योद्धा और महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य में प्रमुख सैन्य नेता थे।
हरि सिंह नलवा का नाम अफगानिस्तान में वीरता और प्रतिरोध का प्रतीक बन गया था। अफ़गानों के मन में उनके प्रति जो डर था, वह उनकी बहादुरी के प्रति उनके गहरे सम्मान और विस्मय का एक प्रमुख उदाहरण था।
आज के लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि हरि सिंह नलवा कौन थे?
हरि सिंह नलवा कौन थे?
हरि सिंह नलवा, जिन्हें आमतौर पर “सरदार हरि सिंह नलवा” के नाम से जाना जाता है, एक प्रमुख सिख योद्धा थे और उन्होंने सिख साम्राज्य के एक महत्वपूर्ण गवर्नर-जनरल के रूप में कार्य किया था। वह 18वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में सिख साम्राज्य के रणनीतिक प्रमुख और महाराजा रणजीत सिंह (Maharaja Ranjit Singh) के सरदार (सैन्य नेता) थे।
हरि सिंह नलवा का जन्म सिख समुदाय में हुआ था और वह अपनी योद्धा गुणवत्ता और युद्ध रणनीतियों के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने कई महत्वपूर्ण लड़ाइयों में भाग लिया, जैसे नाहल की लड़ाई, करलावन की लड़ाई और एंग्लो-सिख युद्ध।
वह कश्मीर, हाजरा और पेशावर के गवर्नर भी थे और उन्होंने अपने प्रशासनिक कौशल से कई क्षेत्रों में सिख साम्राज्य का विस्तार किया। हरि सिंह नलवा ने अफगान युद्ध के दौरान कई अफगान योद्धाओं को हराया और खुद को कई शासित प्रदेशों का स्वामी बना लिया।
उन्होंने खैबर दर्रे का उपयोग करके अफगानों को पंजाब में आने से रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अतिरिक्त, हरि सिंह नलवा ने सिख साम्राज्य के लिए कई महत्वपूर्ण किलों का निर्माण और निरीक्षण किया, जिनमें वागा जिंदान, रामनगर और जामदागर किला शामिल हैं।
हरि सिंह नलवा के सबसे प्रसिद्ध युद्ध कार्यों में से एक सरहिन था, जिसमें उनके सैनिकों और उनकी युद्ध रणनीतियों की प्रशंसा की गई। उनकी योद्धा गुणवत्ता और साहस प्रमुख उदाहरण थे और उन्हें सिख समुदाय के भीतर एक महान योद्धा के रूप में पहचाना जाता था।
हरि सिंह नलवा का योगदान आज भी सिख समुदाय और भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है, और उनकी स्मृति उनके योद्धा गुण और सिख साम्राज्य में उनके योगदान के रूप में जीवित है।
सरदार हरि सिंह नलवा का संक्षिप्त में जीवन परिचय – Brief biography of Hari Singh Nalwa
नाम | हरि सिंह नलवा (Hari Singh Nalwa) |
उपनाम / पहचान | बाघ मार |
जन्म तिथि | 29 अप्रैल 1791 |
जन्म स्थान | गुजरांवाला, पाकिस्तान |
पिता का नाम | गुरदयाल सिंह उप्पल (Gurdial Singh Uppal) |
माता का नाम | धरम कौर (Dharm Kaur) |
धर्म | सिख |
पेशा | सैन्य नेता, सिख खालसा सेना के जनरल |
वैवाहिक स्थिति | विवाहित |
पत्नी का नाम | राज कौर, देसन कौर |
बच्चे | जवाहिर सिंह नलवा, अर्जन सिंह नलवा, चांद कौर, गुरदित सिंहजी, नंद कौर |
मृत्यु | 30 अप्रैल 1837, जमरूद, पाकिस्तान |
प्रारंभिक जीवन
हरि सिंह नलवा का जन्म 28 अप्रैल 1791 को पंजाब के गुजरांवाला जिले में उप्पल गोत्र के एक जाट सिख परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम गुरदयाल सिंह उप्पल और माता का नाम धरम कौर था। हरि सिंह नलवा का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था, लेकिन उनकी महान उपलब्धियों ने उन्हें भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बना दिया।
बचपन में उनके परिवार वाले उन्हें प्यार से “हरिया” कहकर बुलाते थे। जब वह सात वर्ष के थे तब उनके पिता का निधन हो गया।
1805 ई. में वसंतोत्सव की एक प्रतिभा खोज प्रतियोगिता, जो महाराजा रणजीत सिंह द्वारा आयोजित की गई थी, में हरि सिंह नलवा ने अपनी शानदार प्रतिभा दिखाई। इस प्रतियोगिता में उन्होंने भाला फेंक, तीरंदाजी और अन्य प्रतियोगिताओं में अपनी पूर्ण दक्षता प्रदर्शित की। उनके बेहद उत्कृष्ट प्रदर्शन ने महाराजा रणजीत सिंह का ध्यान आकर्षित किया और उन्हें सिख सेना में शामिल होने का अवसर मिला।
इसके बाद हरि सिंह नलवा ने अपने जीवन में सैन्यकर्म में आगे बढ़ने का निर्णय लिया। शीघ्र ही वह महाराजा रणजीत सिंह के विश्वस्त सेनापतियों में से एक बन गए और जल्द ही सिख सेना में उच्च पदों पर आसीन हुए और अपनी दिव्य योद्धा क्षमताओं का परिचय दिया। उन्होंने अपनी महान वीरता और सैन्य क्षमता से भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जंगल में बाघ से मुठभेड़
एक दिन, महाराजा रणजीत सिंह ने अपने सैन्य के साथ शिकार करने के लिए जंगल गए। उनके साथ कई सैनिक और हरी सिंह नलवा भी थे। वह जंगल में शिकार कर रहे थे, तभी अचानक एक बड़े साइज के बाघ ने उन पर हमला किया। इस घड़ी में सभी लोग डर के मारे भागने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन हरी सिंह नलवा ने अपने आपको साहसिक रूप से तैयार किया और बाघ के साथ मुकाबला करने का निर्णय लिया।
हरी सिंह नलवा ने बाघ की तरफ बढ़ते हुए बाघ के जबड़ों को अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसके मुंह को बीच से चीर डाला। इस कठिन मुठभेड़ में, हरी सिंह ने अपनी अद्वितीय बहादुरी का प्रदर्शन किया और बाघ को प्रहार कर शिकस्त दिलाई।
महाराजा रणजीत सिंह ने इस घटना के बाद हरी सिंह की बहादुरी की सराहना की और उनके साहस को देखकर कहा, “तुम तो राजा नल के जैसे वीर हो!” इसके बाद से हरी सिंह नलवा को “नलवा (Nalwa)” के नाम से प्रसिद्ध हो गये, और वह इस घटना के बाद अपनी बहादुरी और साहस के लिए प्रसिद्ध हुए।
आख़िर अफगान नलवा से इतना डरते क्यों थे?
महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के दौरान, जो 1807 ई. से 1837 ई. तक तीन दशकों में हरि सिंह नलवा ने लगातार अफगानों के खिलाफ कड़ी लड़ाइयां लड़ी। इस अवधि के दौरान, उन्होंने अफगानों के साथ कई संघर्षों में भाग लिया और खुद को एक अद्वितीय सैन्य नेता साबित किया।
हरि सिंह नलवा ने अफगानों के खिलाफ कई महत्वपूर्ण युद्धों में भाग लिया था और इन युद्धों में अफगानों को उनके कई क्षेत्रों से बाहर कर दिया था। इससे नलवा ने अपने सिख साम्राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित की और उसकी सीमाओं की रक्षा की।
1807 में महज 16 साल की उम्र में नलवा ने कसूर (अब पाकिस्तान में) की लड़ाई में हिस्सा लिया और इस लड़ाई में उन्होंने अफगान शासक कुतुबुद्दीन खान को हराया।
फिर, 1813 में, नलवा ने अन्य सैन्य अधिकारियों के साथ अटक की लड़ाई में भाग लिया और अजीम खान और उसके दोस्त मोहम्मद खान को हराया, जो काबुल के महमूद शाह की ओर से इस युद्ध की ओर बढ़ रहे थे। यह लड़ाई एक महत्वपूर्ण जीत थी, क्योंकि यह पहली बड़ी जीत थी जो सिख सेना ने दुर्रानी पठानों के खिलाफ हासिल की थी।
1818 में हरि सिंह नलवा के नेतृत्व में सिख सेना ने पेशावर की लड़ाई जीत ली और नलवा को वहीं रहने के लिए नियुक्त किया गया। उन्हें पंजाब-अफगानिस्तान सीमा की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई। फिर, 1837 में, नलवा ने अफगानिस्तान की ओर जाने वाले खैबर दर्रा मार्ग पर एक रणनीतिक क्षेत्र जमरूद पर कब्जा कर लिया। सिख साम्राज्य ने मुल्तान, हजारा, मनेकाडा और कश्मीर जैसे स्थानों में अफगान सेनाओं को हराकर अपने क्षेत्र का विस्तार किया।
इन विजयों का अफगान मानस पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। हरि सिंह नलवा और सिखों के हाथों पराजय की एक श्रृंखला ने अफ़गानों के बीच उनके प्रति भय और सम्मान पैदा किया। उनकी सैन्य कौशल और सिख साम्राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं को सुरक्षित करने की उनकी क्षमता ने इस क्षेत्र में सिख प्रभुत्व स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, प्राचीन काल में अफगानिस्तान को अजेय या दुर्गम क्षेत्र माना जाता था। हालाँकि यह भूमि ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थी, फिर भी इस पर किसी प्रशासक या साम्राज्य द्वारा स्वार्थवश या स्वतंत्र रूप से कब्ज़ा नहीं किया जा सकता था।
हालाँकि, हरि सिंह नलवा ने इस स्थिति को बदल दिया और अफगानिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों और खैबर दर्रे पर विजय प्राप्त की। परिणामस्वरूप, उन्होंने इस मार्ग से अफ़गानों के भारत में प्रवेश की किसी भी संभावना को ख़त्म कर दिया।
जब अफगान शासक लगातार भारतीय राज्यों, विशेषकर पंजाब और दिल्ली पर आक्रमण करने का प्रयास कर रहे थे, तब महाराजा रणजीत सिंह ने अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए दो प्रकार की सेनाएँ बनाईं। पहली सेना, जिसे वे एक संगठित और प्रशिक्षित सेना के रूप में बनाना चाहते थे, में फ्रांसीसी, जर्मन, इतालवी, रूसी और यूनानी योद्धाओं जैसे विदेशी योद्धाओं की भर्ती की गई।
दूसरी सेना की कमान महाराजा रणजीत सिंह के खास सिपाही यानी सिख लोगों के सिपाही हरि सिंह नलवा के पास थी। यह सेना महाराजा की विशेष शक्ति और नेतृत्व में थी और इसकी कमान हरि सिंह नलवा ने संभाली थी।
हरि सिंह नलवा ने अफगानिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों और खैबर दर्रे को सुरक्षित कर लिया और इस मार्ग से अफगानों के भारत में प्रवेश की किसी भी संभावना को समाप्त कर दिया। अपनी बहादुरी और योद्धा गुण के कारण वह अफगानों के खिलाफ सफल रहे और खैबर दर्रे की सुरक्षा सुनिश्चित करने में सफल रहे।
2013 में, भारत सरकार ने हरि सिंह नलवा की बहादुरी का समर्थन करने के लिए उन्हें एक डाक टिकट (Postage stamp) से सम्मानित किया, जिससे उनके महत्वपूर्ण योगदान और बहादुरी को आज भी याद किया जाता है।
सरदार हरि सिंह नलवा की शहादत
1837 में, जब राजा रणजीत सिंह अपने बेटे की शादी में व्यस्त थे, सरदार हरि सिंह नलवा उत्तर-पश्चिम सीमा की रक्षा कर रहे थे। कहा जाता है कि नलवा ने राजा रणजीत सिंह से जमरौद किले की ओर सेना भेजने की मांग की थी, लेकिन एक महीने तक कोई सेना मदद के लिए नहीं पहुंची।
इस समय सरदार हरि सिंह और उनके मुट्ठी भर सैनिक बिना किसी की मदद के बहादुरी से लड़े और वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी बहादुरी और देश की रक्षा के प्रति समर्पण के कारण उन्हें सिख समुदाय के लोगों के बीच एक महान योद्धा के रूप में याद किया जाता है।
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