गुरु गोबिंद सिंह: जीवनी, इतिहास, जयंती और निबंध / भाषण

Guru Gobind Singh: Biography, Birth Anniversary, History and Essay/Speech in Hindi

Guru Gobind Singh: Biography, Birth Anniversary, History and Essay/Speech in Hindi – हम सभी श्री गुरु गोबिंद सिंह जी को विशेष रूप से सिखों के दसवें गुरु के रूप में जानते है. वह न केवल एक बहादुर और तेज-तर्रार नेता के रूप में जाने जाते थे बल्कि वे शौर्य, साहस, वीरता और पराक्रम के प्रतीक भी थे.

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के शासनकाल में सिक्ख धर्म में मौलिक परिवर्तन किए गए थे, उन्होंने ही सिक्खों को पंच ककार (Punch Kakar) धारण करने का आदेश दिया था. खालसा पंथ (Khalsa Panth) की स्थापना भी गुरु गोबिंद सिंह ने की थी.

उन्होंने अत्याचारी मुगलों की बुराई के खिलाफ आवाज उठाई और “सत श्री अकाल (Sat Shri Akal)” का नारा बुलंद किया. गुरु जी का व्यक्तित्व ऐसा था कि उन्होंने निर्बल को वीर और वीर को सिंह बना दिया था.

गुरु गोबिंद सिंह जी का बचपन

गुरु गोबिंद सिंह का जन्म 22 दिसंबर, 1666 को पटना (वर्तमान बिहार) में, नौवें सिख गुरु, गुरु तेग बहादुर (Guru Tegh Bahadur) और माता गुजरी (Mata Gujri) के यहां हुआ था. उनका बचपन का नाम गोविंद राय (Govind Rai) था.

गुरु गोबिंद सिंह जी बचपन से ही स्वाभिमानी और वीर स्वभाव के थे. उनकी बुद्धि बहुत तेज थी, जिसके कारण उन्होंने बड़ी आसानी से हिंदी, संस्कृत और फारसी का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया था.

गुरु गोबिंद सिंह जी का अध्ययन

उनकी शिक्षा शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी (Chakk Nanaki) नामक स्थान पर शुरू हुई. चक्क नानकी को अब आनंदपुर साहिब (Anandpur Sahib) कहा जाता है. उन्होंने फ़ारसी, संस्कृत सीखी थी और योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल का हुनर भी आत्मसात किया था.

गोविन्द राय जी मनुष्य में नैतिकता, निर्भयता और आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते हुए प्रतिदिन आनंदपुर साहिब में आध्यात्मिक आनन्द बांटते थे.

गोबिंद सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए

गुरु तेग बहादुर कश्मीरी पंडितों के इस्लाम में जबरन धर्म परिवर्तन के खिलाफ शिकायत लेकर आगे आए. उस समय गुरु गोबिंद सिंह जी नौ वर्ष के थे.

कश्मीरी पंडितों को जबरन धर्मांतरण से बचाने और खुद इस्लाम कबूल न करने पर मुगल बादशाह औरंगजेब ने 11 नवंबर 1675 को दिल्ली के चांदनी चौक में उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सार्वजनिक रूप से सिर कलम कर दिया था.

इसके बाद 29 मार्च, 1676 को बैसाखी के दिन गोबिंद सिंह को सिखों के दसवें गुरु के रूप में घोषित किया गया.

सिख धर्म के दसवें गुरु बनने के बाद भी उनकी शिक्षा जारी रही. शिक्षा के तहत उन्होंने लिखना-पढ़ना, घुड़सवारी और सैन्य कौशल सीखा.

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गोबिंद सिंह जी का वैवाहिक जीवन

गुरु गोबिंद सिंह जी की तीन पत्नियां थीं. 21 जून, 1677 को 10 वर्ष की आयु में उनका विवाह माता जीतो (Mata Jeeto) से हुआ था. उन दोनों के 3 पुत्र हुए जिनके नाम थे – जुझार सिंह (Jujhar Singh), जोरावर सिंह (Zorawar Singh) और फतेह सिंह (Fateh Singh).

4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी (Mata Sundari) के साथ हुआ. गुरु गोबिंद सिंह और माता सुंदरी का एक बेटा था जिसका नाम अजीत सिंह (Ajit Singh) था.

गुरु गोबिंद सिंह जी ने 33 साल की उम्र में 15 अप्रैल, 1700 को माता साहिब देवन (Mata Sahib Devan) से शादी की. हांलाकि उनकी कोई संतान नहीं थी, लेकिन सिख धर्म के अनुसार, उनका काल भी बहुत प्रभावशाली था.

खालसा पंथ की स्थापना

गुरु गोबिंद सिंह जी के नेतृत्व ने सिख समुदाय के इतिहास में कई नए विकास किए. 1699 में, बैसाखी के दिन, उन्होंने खालसा बनाया जो सिख धर्म के विधिवत अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है.

सिख समुदाय की एक सभा में उन्होंने सबके सामने एक प्रश्न पूछा – “कौन अपना सिर कुर्बान करना चाहता है”? उसी समय एक स्वयंसेवक इसके लिए राजी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे डेरे में ले गए और कुछ देर बाद खून से लथपथ तलवार लेकर लौट आए.

गुरु ने फिर से उस भीड़ में उपस्थित लोगों से वही सवाल किया और इसी तरह एक और व्यक्ति सहमत हो गया और उनके साथ चला गया लेकिन जब वह डेरे से बाहर आये तो उसके हाथ में खून से सनी तलवार थी.

इसी तरह, एक-एक करके पांचवा स्वयंसेवक भी उनके साथ डेरे के भीतर गया; कुछ समय बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ लौटे और उनका नाम पंज प्यारे (Panj Pyare) या पहला खालसा रखा.

उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और शक्कर मिलाकर दोधारी तलवार से घोलकर उसका नाम अमृत (Amrit) रख दिया.

इस दिन उन्होंने पहले पंज प्यारों को अमृत पिलाकर खालसा बनाया और फिर स्वयं उन पंज प्यारों के हाथों से अमृत का सेवन किया.

पहले 5 खालसा के गठन के बाद, उन्हें 6 वें खालसा के रूप में नामित किया गया जिसके बाद उनका नाम बदलकर गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह कर दिया गया.

खालसा पंथ में गुरु गोबिंद सिंह जी ने पंच ककार के पांच सिद्धांत दिए थे, जिनमें केश, कंघा, कड़ा, किरपान और कच्छेरा शामिल हैं और इनका पालन करना हर खालसा सिख के लिए जरूरी है.

इतना ही नहीं गुरु गोबिंद सिंह जी ने स्वयं “वाहे गुरु जी दा खालसा, वाहे गुरु जी दी फतेह” का नारा दिया था जिसे खालसा वाणी (Khalsa Vani) के नाम से जाना जाता है.

इधर 27 दिसंबर, 1704 को गुरु गोबिंद सिंह के दो छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह को सरहिंद के नवाब ने इस्लाम स्वीकार न करने पर जिंदा दीवार में चुनवा दिया था और माता गुजरी को किले की दीवार से गिराकर शहीद किया गया.

जब गुरुजी को इस बात का पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (जीत का पत्र) लिखा, जिसमें उन्होंने औरंगजेब को यह चेतावनी देकर चुनौती दी कि खालसा पंथ तुम्हारे सल्तनत को नष्ट करने के लिए तैयार हो गया है.

8 मई, 1705 में “मुक्तसर” नामक स्थान पर मुगलों से हुए भयानक युद्ध में गुरुजी की जीत हुई. अक्टूबर 1706 में, गुरुजी दक्षिण गए जहां उन्हें औरंगज़ेब की मृत्यु का पता चला.

औरंगजेब की मृत्यु के बाद, गोबिंद सिंह जी ने उसके बेटे बहादुर शाह को बादशाह बनने में मदद की. गोबिंद सिंह जी और बहादुर शाह के बीच राजनीतिक संबंध बहुत अच्छे थे. 

इन सम्बन्धों को देखकर सरहिंद का नवाब वाजीत खां भयभीत हो गया था. इसलिए उसने गुरुजी को मारने का काम दो पठान हत्यारों को सौंपा. इन पठानों ने कपट से गुरुजी पर जानलेवा हमला किया, जिससे गुरु गोबिंद सिंह जी 7 अक्टूबर 1708 को नांदेड़ साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए.

गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने अंतिम दिनों में सिखों को “गुरु ग्रंथ साहिब (Guru Granth Sahib)” को अपना गुरु मानने का आह्वान किया था और उन्होंने स्वयं इसके आगे सिर झुकाया था.

यह गुरु गोबिंद सिंह जी थे जिन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया और गुरु ग्रंथ साहिब को अपने अगले उत्तराधिकारी और सिख समुदाय के लोगों के मार्गदर्शक के रूप में नियुक्त किया.

गुरु गोबिंद सिंह जी की जयंती

“गुरु गोबिंद सिंह जयंती” सिखों के 10 वें और अंतिम गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी की याद में हर साल दुनिया भर में सिखों द्वारा मनाई जाती है, इस दिन को प्रकाश पर्व (Prakash Parv) के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन देश भर के सभी गुरुद्वारों को सजाया जाता है.

सिख बांधव अपने परिवार के साथ गुरुद्वारे में अरदास, भजन, कीर्तन के साथ मत्था टेकने जाते हैं. इस दिन “नानक वाणी (Nanak Vani)” का पाठ किया जाता है और विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है जिसमें लोक कल्याण के सभी कार्य जैसे दान आदि किए जाते हैं.

इस दिन देश-विदेश में स्थापित सभी गुरुद्वारों में लंगर रखा जाता है, जिसे सभी जाति-धर्म के लोग गुरु गोबिंद सिंह जी का महाप्रसाद ग्रहण करने गुरुद्वारों में जाते हैं.

निष्कर्ष

गुरु गोबिंद सिंह न केवल एक पराक्रमी नेता थे बल्कि वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक विचारक और संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे. उन्होंने स्वयं अनेक ग्रन्थों की रचना भी की.

गुरु गोबिंद सिंह जी विद्वानों के संरक्षक भी थे; उनके दरबार में 52 प्रतिभाशाली कवि और लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें “संत सिपाही (Sant Sipahi)” भी कहा जाता था.

वे भक्ति और शक्ति के अनुपम संगम थे; उन्होंने हमेशा प्रेम, सदाचार, एकता और भाईचारे का संदेश दिया. यहां तक कि जब कभी किसी ने गुरुजी को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता और सौम्यता से उन्हें परास्त कर दिया.

गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को न तो किसी से डरना चाहिए और न ही किसी को डराना चाहिए. उनका दृढ़ विश्वास था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की हमेशा जीत होती है.

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